घर जाने में
पहले घर में घुसते ही
एक अजीब-सा उतावलापन होता था
कि मैं बड़ी तत्परता से नज़र फेर लूँ
कि सब कुछ यथावत है या नहीं
और घर भी जैसे मेरी प्रतीक्षा में
अपना सारा काम-धाम छोड़कर खड़ा हो।
आँगन में अलगनी पर माँ की साड़ी सूखती रहती
धुएँ से काले हुए रौशनदान ताकते रहते
कि जैसे मैं उन्हें पहचान रहा हूँ या नहीं।
माँ गुनगुनाते हुए चावल बीनती दिख जाती
गाना गुनगुनाते वक़्त माँ से कुछ कहो तो
वह बोलती नहीं थी
कई बार कहो तो वह झुँझला जाती
माँ का झुँझलाना तब बहुत अच्छा लगता था।
शाम के वक़्त घर पहुँचो तो
पिता बाज़ार से सब्ज़ी लाने गए होते
और कुछ ही क्षण में आ जाते
यह दृश्य इतना नपा-तुला था
कि इसमें कुछ भी नयापन
या अजीब नहीं दिखाई देता
चाहे जितनी बार बाहर से लौटकर घर जाओ।
अब चाहे जितनी बार घर जाओ
माँ चावल बीनते हुए दिखाई नहीं देती
धुएँ से काले पड़े रौशनदानों को कोई फ़र्क़ नहीं
कि मैं उन्हें पहचान रहा हूँ या नहीं
पलस्तर जमी हुई काई के नीचे से
देखते हैं मुझे और चुप हो जाते हैं।
बाज़ार से सबज़ी लाने जैसी
अब कोई प्रक्रिया नहीं
सब्ज़ीवाला अब ठीक दरवाज़े पर ही आ जाता है।
लगता है जैसे समूचा घर
एक सफ़ेद चादर से ढक गया है
और वे सारी चीज़ें
जिन्हें मैं बड़े उतावलेपन से ढूँढ़ता हूँ
उसके नीचे छुप गई हैं।
घर जाने में अब
घर जैसा सुख नहीं रहा।
घर जाने में अब डर लगता है
कि फिर मुझे लौटकर आना है।
- रचनाकार : पंकज प्रखर
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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