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नरक

narak

शशि शेखर

अन्य

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और अधिकशशि शेखर

    लगातार पसीजती देह

    और उभरती चिपचिपाहट,

    चुभती हुई सुइयों से

    पूरे बदन की चुनचुनाहट,

    जैसे साँस लेती है

    स्पंदित रहती है

    असंख्य रोमछिद्रों से

    वह त्वचा

    जो बदन भर के गोश्त को

    अपने अंदर समेटे

    उससे एकाकार हो जाती है।

    गंदी मैली देह से

    जब गुज़रता है पसीना

    तो देह लसलसाती है

    मन भिनभिनाता है

    सारा सौंदर्यबोध फफूँद के

    फेनिल महकते घेरे में

    कसमसाता-सा

    गहरी नींद में

    बेख़बरी में चुपचाप

    एक उछाह-सा भरता

    वीर्य बन चू जाता है।

    हथेली का पसीना

    देह से चिपके कपड़ों के सफ़ेद धब्बे

    और भीतर से

    लगातार उठते गर्म बवंडरों का उछाह

    मिल-जुलकर

    कोई दुरभिसंधि करते हैं

    और आँखों के आगे

    आग की पतली आड़ी-तिरछी लकीरें

    पूरे माहौल को

    तत्क्षण लहकाती हैं।

    पेट में

    अमाशय में पड़ा खाना

    जब पचता नहीं

    तो खट्टी डकारें

    हिचकियों में आती हैं

    और नाक में एक बदबू-सी

    भर जाती है

    जैसे शिराओं में ख़ून नहीं

    कोई गंदी सड़ी नाली बह रही हो

    और पचपचाते गीले खाने में

    सफ़ेद कीड़े कुलबुलाते हुए

    रेंगने लगे हों।

    जैसे मिट्टी को केंचुए

    भुरभुरा करते हैं

    वैसे देह पर कुछ रेंग रहा होता है

    खेल रहा होता है

    कोई कनखजूरा

    कुछ चीटियाँ

    जो काट-काटकर

    बदन को दरदराती है

    और लहकते लाल धब्बों से

    देह को पाटकर

    पूरे अस्तित्व को

    नरक के दमघोंटू भयानक काले अँधेरे में

    खड़ा कर देती हैं।

    नरक की आग

    जलता हुआ कड़ाहा

    तपते हुए बालू

    गरम-गरम लाल सलाख़ें

    उबलता हुआ पानी

    खौलता हुआ तेल

    आलू-सी सींझकर

    आदमी की खाल खिंच गई है

    परत-दर-परत उतर रही है

    और बिना किसी ढाँचे के

    ज़मीन पर पसरी

    तहों में ढेर हो गई है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : शशि शेखर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए अदिति शर्मा द्वारा चयनित

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