शिरीष-सा मन

shirish sa man

निधि अग्रवाल

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शिरीष-सा मन

निधि अग्रवाल

और अधिकनिधि अग्रवाल

    शिरीष पुष्पों-सा नाज़ुक, यह मन हो गया है,

    तुम मेरे हो मुझको, भरम हो गया है।

    अकारण ही आह्लादित, संदल-सा मन है

    सुधियों से संचालित, बहका-सा तन है

    नयन घट सहज ही, छलकते ये जाते

    व्यथा ग़ैर की में, भी रुक ये पाते

    नित बहते ही जाना, धरम हो गया है

    तुम मेरे हो मुझको, भरम हो गया है।

    रात भर है ठहरता, मुसाफ़िर गगन का

    क्षणिक है समय क्यों, हमारे मिलन का

    तुम्हें पाने को संमुख, मचलती-सी जाती

    तुम कहते हो अपना, मैं डर भी हूँ जाती

    छद्म प्रेमियों का, अब चलन हो गया है

    तुम मेरे हो मुझको, भरम हो गया है।

    माह जेठ का क्यों, फागुन है लगता

    पिया नाम हृदय में, हर धुन पर बजता

    लगे जग ये सुंदर, मन मे वलन है

    प्रेम गीतों का मन, हो गया संकलन है

    मदन बाणों से आहत, बदन हो गया है

    तुम मेरे हो मुझको, भरम हो गया है।

    शिरीष पुष्पों-सा नाज़ुक, यह मन हो गया है

    तुम मेरे हो मुझको, भरम हो गया है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : निधि अग्रवाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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