घर के लिए बुज़ुर्ग, बचुवा ही होता है

ghar ke liye buzurg, bachuwa hi hota hai

अर्पण कुमार

अर्पण कुमार

घर के लिए बुज़ुर्ग, बचुवा ही होता है

अर्पण कुमार

और अधिकअर्पण कुमार

    फुल्लनपुर

    ग़ाज़ीपुर जनपद में है

    वहाँ दिखता है

    एक पुराना पुश्तैनी मकान

    रेलवे-गुमटी के ठीक पास में

    खुली हैं जिसकी खिड़कियाँ

    जो नीली हैं,

    जिसका बाहरी दरवाज़ा हो गया है

    धूल-धूसरित इतना

    कि उस नीले पर जैसे

    हवा ने अपने हाथों

    धूल की कोई मोटी परत चढ़ा दी हो

    उस घर में

    इन दिनों कोई नहीं रहता

    मगर

    हवा, धूप, बारिश का साथ

    मिलता रहता है उसे

    कुछ-न-कुछ

    बदलता रहता है घर

    घूमती हुई इस पृथ्वी पर

    घूम रहा होगा कहीं इधर-उधर

    इस घर में पला-बढ़ा

    इकलौता बेटा

    जो हो चुका वृद्ध कब का

    मगर

    इस घर के लिए

    अब भी वह ‘बचुवा’ ही है,

    हवा, धूप, बारिश का साथ

    मिलता होगा उसे भी

    बदल रहा होगा वह भी

    कुछ-न-कुछ

    जब कोई अवसर आएगा

    ये दो बदले हुए लोग

    गलबहियाँ करेंगे

    पुराने दिनों को याद करेंगे

    धुले-खिलखिलाते नीले रंग में

    घर के दरवाज़े और खिड़कियाँ

    दुलार कर रही होंगी

    उस बचुवा के

    पोते-पोतियों को

    इस घर में आकर

    अपनी परवर्ती संततियों के बीच

    वह बुज़ुर्ग एक

    बच्चा बन जाता है

    झुर्रियों के बीच की उसकी हँसी को

    पचहत्तर वर्ष पूर्व

    जाकर देख लेती हैं

    इस घर की दीवारें

    तब वह मात्र पाँच वर्ष का था

    मैं देखना चाहता हूँ

    फुल्लनपुर का

    वह पुराना मकान

    फिर-फिर

    जो एक वृद्ध के लिए

    किसी क़रामाती प्लास्टिक सर्जन से

    कहीं बढ़कर है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अर्पण कुमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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