तिरछी परछाई खेरमुतिया1 को ग्रसती हुई
जाती बड़ी तेज़ी से झाड़ियों को–युवा हैं
जो, और नहीं पाती पहचान वे छाया
यह गुज़ार गई कौन-सी ऊपर से।
बादल क्या देखता?
झरने के कई-कई चेहरे हैं।
उछाल पर रूपहली धारा की उछलती जब
ट्राउट मछली सहसा तब
तुम भी आ जाती क़रीब क़दमों के
मेरे शायद, मृत बच्ची—एरे घुसा!
होगा अँधकार, सुबह हुई भी है,
जान नहीं पाएँगे।
या फिर पहुँचेंगे अजनबी देशों में,
खोदेंगे उजली स्मृति सूर्य की।
गूँजती हुई पंक्तियाँ मन की चारदीवारी से
छूमंतर हो जाएँगी। क्या पता
कल्पित-कथा बताती रही है जो हमारे
जीवन के बारे, बदल जाएगी सहसा
एक विकट कहानी में जो कही नहीं जाएगी।
बस, पिता, चाहते हैं भरोसा हम केवल
इस बात का कि अंश कुछ तुम्हारा
रह जाए शब्द—अक्षरों में,
बराबर जिन्हें साथ ही रखेंगे हम—
जैसे मधुमक्खियाँ अपनी आवाज़।
जाएँ हम, जहाँ भी रहें, बज उठे प्रतिध्वनि
तुम्हारी हम में,
जैसे कि याद आ जाती है सूर्य की
देखकर झुलसी, मुरझाई घास, घरों के
धुँधले अहातों में।
और फिर एक दिन शब्द जो बनाए थे हमने
तुम्हारे साथ ध्वनिहीन, चुप्पी और चिंता
की ख़ुराक में,
बज उठे एक मित्र हृदय में
बसाए हुए समुद्र का खारापन अपने में।
वहाँ! सुलग रही बाँह सोने की
डली एक पड़ी हुईं सूरज की
सीध में।
व्यग्र तितली सफ़ेद, जलते हुए
झाग पर खिंचा हुआ मकड़ी के
जाले का तार एक
हो रहा कुछ न कुछ, ऐसा भी बहुत
ज़्यादह, देख नहीं सकती
जिसे सुई की आँख भी—
ज़िंदगियाँ कई-कई चाहिए
एक की ख़ातिर।
- पुस्तक : दरवाज़े में कोई चाबी नहीं (पृष्ठ 273)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : यूजीनियों मोंताले
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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