महामारी का साल : बारह महीने—बारह कविताएँ

mahamari ka sal ha barah mahine—barah kawitayen

अनुराग अनंत

अनुराग अनंत

महामारी का साल : बारह महीने—बारह कविताएँ

अनुराग अनंत

और अधिकअनुराग अनंत

     

    जनवरी

    कोहरे में डूबी सुबह
    प्रार्थना करती रहती है किसी निष्ठुर देवता की
    शाम तलाशती रहती है आग
    जैसे मेरी हथेलियाँ ढूँढ़ती हों तुम्हारा हाथ
    इस तरह होते हैं दिन
    जैसे अनमना-सा बैठा रहता था नदी किनारे
    पिछले जनम में
    गुनगुनी धूप में सुखा रहा हूँ मन
    जैसे अचार बनाती थी माँ
    और बेवक़ूफ़ बनाती थी तुम

    फ़रवरी

    चाँद पर पहुँचा पहला आदमी अमर हुआ
    दूसरे को भूल गई दुनिया
    साल के पहले महीने को मिले स्वप्न और उत्सव
    दूसरे महीने को दिनचर्या
    तुम्हारे पहले प्रेमी को मिला प्रेम
    और मुझे स्मृति

    मार्च

    फाँसी के फंदों पर उग आए हैं सरसों के फूल
    और सूफ़ियों ने कस लिए हैं घुँघरू
    रंग उड़ रहा है
    भीगता है भीतर का एकांत
    पत्थर जीवित हो रहे हैं
    मुट्ठियाँ तन रही हैं
    तानाशाहों के माथे पर पसीना है
    और विश्वविद्यालय में विद्रोह और प्रेम
    दोनों परवान चढ़ रहा है
    इस बीच मैं सड़क के बीचोंबीच खड़ा हूँ
    जैसे पाश खड़ा था अपने खेत में

    अप्रैल

    झड़ रहे हैं पत्ते
    पेड़ों के हृदय खंडित हैं
    नदि के किनारे तीर लगा है
    प्यास से बिलखते जल के देवता को
    किताबों में गड़ाए हुए हूँ सिर
    कि कोई तो सुराग़ मिले राजा के निर्दयी होने का
    घर से दूर घर की स्मृति में
    चला जा रहा हूँ घर की तरफ़

    मई

    संदेह सदेह हो गया है
    हर कोई अपने लिए उपयुक्त संदिग्ध तलाश रहा है
    जैसे निर्वस्त्र तलाशते हैं वस्त्र
    मौसम में महामारी है
    व्याकुलता, अवसाद और विकल्पहीनता
    आपस में मिल रहे हैं
    जैसे मेरे शहर में मिलती हैं
    तीन नदियाँ
    टी.वी. चैनलों के नाख़ूनों से रक्त टपक रहा है
    और आसमान से आग
    मज़दूर अब भी लौट रहे हैं
    जैसे लौट रहें हो कोटि भग्न स्वप्न
    एक जोड़ी आँख की ओर

    जून

    समय बिल्लियों के पंजों में बदल चुका है
    ट्रेनें ठहरी हुई हैं
    बसों के बस में कुछ नहीं है
    एक फ़िक्र है
    जो दो जून की रोटी के बीच दोलन कर रही है
    कवि अत्याचार की तरह कर रहे हैं कविता
    नेता नृत्य की तरह कर रहे हैं राजनीति
    क्षुद्रता इतनी विशाल है
    जितना राजा का वक्षस्थल
    रसोइए में बदल गए हैं वे
    जिन्हें रोटियों में बदल जाना था
    इस समय

    जुलाई

    बाहर बरस रहे हैं बादल
    भीतर पसरता जा रहा है रेगिस्तान
    स्पर्श पर प्रतिबंध है
    और चेहरे पर नक़ाबों को मिल चुकी है
    वैधानिकता और अनिर्वायता
    दोनों ही
    कल्पना संक्रमित है
    इसलिए कला रोगी
    मैंने कभी नहीं पाया मनुष्य को इतना अकेला
    जितना इस मौसम में
    आत्महत्या का ख़याल
    ऐसे आ रहा है
    जैसे बचपन में हर शाम आता था
    मुंडेर पर नीली गर्दन वाला कबूतर

    अगस्त

    दूर से आ रही हैं
    अप्रिय ध्वनियाँ
    सूचनाएँ
    शोक-संदेश
    पास बैठती जा रही हैं
    आशंकाएँ
    अनिश्चिताएँ
    चिंताएँ
    जड़ हो चुका है समय
    आईने में क़ैद हो गए हैं दृश्य
    उदास शक्लें
    देख रही हैं अनंत की ओर
    जैसे सच में कोई ईश्वर हो कहीं
    जैसे सच में उसके पास भी हो
    कोई हृदय

    सितंबर

    बहुत मर चुके लोग
    अब गणित नहीं होती परेशान
    गणना निरर्थक कर्म है
    जिसे न सरकार कर रही है
    और न नागरिक
    ऊब कर लोग कर रहे हैं विवाह
    जबकि उन्हें करना चाहिए था प्रेम
    प्रेम के अकाल में
    विवाह से त्रासद कुछ भी नहीं
    फिर सोचता हूँ
    त्रासदी के मौसम में एक त्रासदी और सही

    अक्टूबर

    फिर से चढ़ रही है सर्दी
    जगह बदल रहे हैं लोग
    लैम्पपोस्ट की रोशनी अभी भी उदास है
    सुबह अभी भी ठिठकी हुई
    शाम के पाँव अभी भी घायल हैं
    गांधी तीन महीने बाद मारे जाएँगे
    गांधी अभी अभी पैदा हुए हैं
    हाय राम! गांधी का जीवन इतना कम
    हाय राम! हम इतने बेरहम

    नवंबर

    चोरों को कोई चिंता नहीं है
    न दाढ़ी की और न तिनकों की
    सब ज़िम्मेदारी राजा ने अपने सिर ले ली है
    दाढ़ी की भी और तिनकों की भी
    राजा ने दाढ़ी बढ़ा ली है
    तिनके अब राजा की दाढ़ी में हैं
    सम्मान से, अभिमान से
    चोर अदृश्य होकर चोरी कर रहे हैं
    अदृश्य के चेहरे नहीं होते
    इसलिए उनकी दाढ़ी भी नहीं होती
    तिनके फिर भी होते हैं उनके पास
    जिन्हें वे राजा की दाढ़ी में छिपा देते हैं

    दिसंबर

    खुले आसमान के नीचे बीत रही हैं रातें
    ईश्वर नहीं है किसान
    इसलिए लड़ रहा है मनुष्यों की तरह
    भूख और अनाज के लिए
    उसके खेतों को देख रहे हैं गिद्ध
    अपने खेतों को देख रहा है वह
    अपनी माँ की तरह
    रस्सी पर गाँठ पड़ी है
    इस कड़ाके की सर्दी में
    उम्मीद की एक लौ राजधानी की सरहद पर खड़ी है

    स्रोत :
    • रचनाकार : अनुराग अनंत
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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