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एक प्राचीन दुर्ग की सैर

ek prachin durg ki sair

अन्य

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प्राचीनता ही दरअसल इसकी सुंदरता है

समय दुर्ग की दीवारों, गुंबदों, बुर्जों और स्तंभों पर

गाढ़े ख़ून की मानिंद जम चुका है

सैलानियों की आवाजाही से आक्रांत

लेकिन उजाड़

फिर भी उजाड़।

मैं अवाक् खड़ा देख रहा हूँ

सूर्य को

गुंबदों से टकराकर

नींव में छिटककर गिरते हुए

पसीने से लथपथ बादलों को

भय से थरथर काँपते हुए।

लो!

तेज़ बारिश शुरू हो गई

मैं झरोखे की ओट से देख रहा हूँ

बारिश की हर बूँद के साथ

एक सैलानी को

कम होते हुए

थोड़ी देर बाद

दुर्ग में मैं बिल्कुल अकेला हूँ।

दुर्ग की मज़बूत दीवारों से पानी

तेज़ी से फिसल रहा है

और धीरे-धीरे नींव की शिनाख़्त में मशग़ूल हो रहा है

जहाँ पत्थर चटक रहे हैं और उनसे रक्त रिस रहा है

सब कुछ भीग रहा है

घुल रहा है

आकार ग्रहण कर रहा है

समय का पहिया पीछे की तरफ़ घूम चुका है

दुर्ग के खंडहर सुगबुगा रहे हैं

और धूल झाड़ते हुए

अपनी अनंत नींद से अब जाग रहे हैं

मैं पसीने से थरथर काँप रहा हूँ

उफ़्फ़!

कितना शोर है यहाँ

कितनी ख़ामोशी

कितनी रंगीनी

कितना वैभव

कितनी विलासिता

कितनी ईर्ष्या

कितनी-कितनी यातनाएँ!

स्रोत :
  • रचनाकार : अदनान कफ़ील दरवेश
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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