एक भुलाई जा चुकी फ़िल्म 'ज़ुबैदा' को देखने के बाद

ek bhulai ja chuki film 'zubaida' ko dekhne ke baad

अणुशक्ति सिंह

अणुशक्ति सिंह

एक भुलाई जा चुकी फ़िल्म 'ज़ुबैदा' को देखने के बाद

अणुशक्ति सिंह

और अधिकअणुशक्ति सिंह

    नहीं वह तुम्हारा भ्रम नहीं था

    मैंने तुमसे प्रेम ही किया था ज़ुबैदा।

    तुम मेरे मानस का मनोरंजन थीं,

    मेरे रसहीन दिनचर्या से एक सुंदर पलायन।

    मैं स्वाद का इच्छुक हूँ,

    मानकता का आग्रही...

    तुम क्या ख़ूब जँचती थी,

    मेरे सर्व-सराहनीय मानकों पर

    मैं नज़र घुमा कर देखता था,

    मेरी आँखें टिकती थीं,

    या तो तुम पर...

    या फ़िर हमेशा रेस जीतने वाले मेरे प्रिय घोड़े पर।

    तुम दोनों की आँखों की काली बड़ी पुतलियाँ,

    मुझे हमेशा सम्मोहित करती थीं।

    तुम्हें ज्ञात है जुबी,

    दुनिया की तमाम ख़ूबसूरत चीज़ों का हक़दार

    कोई पुरुष ही हुआ है।

    क्या तुमने कभी सुना है,

    मूर्तियों के नाम लिखी गई है संपदा?

    तुम भी मूर्ति ही तो थी,

    संगमरमर की सफ़ेद-झक्क!

    हाथ लगाते ही मैली हो जाने वाली।

    मैंने स्थापित किया तुम्हें अपने महल में,

    अपने हृदय में...

    क्या तुमने सुना है कभी,

    मूर्तियाँ वामांगी हुई हैं?

    पिग्मेलियन तो पागल कलाकार था।

    दुनिया संभालते पुरुष

    पिग्मेलियन नहीं हो सकते।

    वे भली भाँति जानते हैं,

    मूर्ति की वास्तविक स्थिति।

    संगमरमर की मूरत को

    पड़े रहना है अपने खाँचे में,

    उसे नहीं है आज्ञा,

    विक्टर के संसार में

    अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की।

    यह भी विक्टर का प्रेम ही है।

    जिन वस्तुओं से हमें प्रेम होता है,

    उसे हम झाड़ते-पोंछते रहते हैं,

    बिना उनकी जगह बदले हुए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अणुशक्ति सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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