दृष्टिकोष
हे! अतीत के द्रष्टा,
समालोचना के ठेकेदार,
तुम्हारी व्याख्या
मानवता की लरजती लाश पर
एक नपुंसक अट्टहास रही है,
जो व्यवस्था के चूलों को देती हैं
एक इस्पाती आधार,
परिवर्तन के छलावे का
विषधर रसपान करती।
तुमने गर्भवती माँ के परित्याग को
मर्यादा की अग्नि में शहादत कहा है,
और ढूँढ़ा है, उसमें जन-आस्था का बिंब।
वैयक्तिक अहं की ज्वाला में
झुलसती नारी के पति को
पुरुषोत्तम कहा है तुमने।
एक आश्रमपोषित बाला के
छलावापूर्ण बलात्कार में तुमने
देखा है चक्रवर्ती का सौंदर्य-बोध,
वीर पुत्र के प्रति राजकीय मोह में
देखी है मिलन की तड़पन,
तिरस्कार का किया है समाधान
अभिशप्तता का अवलंब लेकर।
क्या पता अभिशाप का कारक
वांछित आतिथ्य—
कौन-सी नवीन पीड़ा देता
उस वन-कन्या को,
जिसका दोष था—
अल्हड़ता, सहज प्रेम विह्वलता।
तुमने निर्दोष अहिल्या के पाषाणीकरण में
इंद्र व चंद्र सदृश देवों की
निर्लज्जता नहीं देखी,
पुरुष के वहशीपन में भी सदैव,
नारी का दोष ढूँढ़ा है तुमने,
किया है पुरुष का स्थापित दंभ,
नारी का उद्धार भी पुरुष के
पाद-स्पर्श में व्याख्यापित कर।
तुमने देखा है
एकलव्य के अँगूठे की रक्तिम धार में
राजतंत्र का स्थायित्व।
मरे नरो व कुंजरों, में देखी है
संवेदना की कुत्सित मौत नहीं,
बल्कि धर्मनिष्ठ योद्धा की
छोटी-सी भूल महज़ एक।
तुमने द्रौपदी के चीरहरण में
दुःशासनों की क्रूरता तो देख ली,
पर पत्नी को भी दूव पर लगाने की
महानायकों की नपुंसकता नहीं देखी।
भीष्म, द्रोण, कृपाचार्यों की
अमानवीय उदासीनता को भी
मात्र विवशता कहकर टाला है तुमने।
तुमने अभिमन्यु की मौत का
उदात्तीकरण तो किया,
पर पिता के गुरु द्वारा
रचित व्यूह की वांछित भर्त्सना
भूल गए शायद।
तुम्हें सीता की एकांतिक सिसकियों,
द्रौपदी की मर्मांतक पीड़ा,
शिष्य की आस्था पर सांघातिक क्रूरता,
अबोध शिशु की निर्मम हत्या,
वन कन्या की कोमलता से हुए धोखे
से क्या लेना है?
तुम्हें करना है स्थापित—
राम, कृष्ण, युथिष्ठिर
भीष्म और दुष्यंत को।
इतिहास के उन तमाम विजेताओं को,
और दुहाई देते हो—
धर्म, प्रेम, न्याय और आस्था की।
सीता, शकुंतला, द्रौपदी के आँसुओं से
अविरल सींचती,
एकलव्य, अभिमन्यु की रक्तरंजित धार से
विजय के उन्माद में कथानक रचती
समष्टि की क़ीमत पर
व्यष्टि की स्थापना का फ़लसफ़ा बुनती
तुम्हारी यह व्याख्या,
ले डूबेगी समूचे भावी इतिहास को,
या परिवर्तन का नया झोंका
उड़ा देगा तुम्हारे इस खोखले
बौद्धिक दुर्ग को और
होगी नवीन सहज आस्थावान् संरचना।
- पुस्तक : शब्द! कुछ कहे-अनकहे से... (पृष्ठ 25)
- रचनाकार : एन.पी. सिंह
- प्रकाशन : प्रभात प्रकाशन
- संस्करण : 2019
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