दृष्टि

drishti

महिम बरा

महिम बरा

दृष्टि

महिम बरा

और अधिकमहिम बरा

    वर्षा की सारी शाम

    मेरी आँखें बरामदे में बैठी रहती हैं,

    शाम बैठी रहती है एक गठरी घास में

    मेरे बरामदे के कोने में,

    यह अचानक क्या हुआ

    आँखें कैसी चमक गईं? हरी बिजली की

    चमक स्थिर है

    एक गठरी घास में।

    लाचार दोनों आँखों में दुर्वासा की भूख लेकर

    मेरी दृष्टि स्थिर हो गई आँखों के कोने में :

    पुलक में!

    विस्मय में!!

    प्रथम निशा के प्रणय में!!!

    सौंदर्य के बहुत-से आलोक पार होकर बाज़ारों में

    कितने चक्कर काटे। मोल-तोल करते-करते थक गया

    दूकान पर दूकान में बेकार ग्राहक हूँ।

    आज मेरे बरामदे के कोने में

    सबकी नज़र से ओझल

    वह रूप पकड़ा गया।

    अभिमान से भरपूर उपेक्षित दोनों आँखों में शर्म

    एकदम साधारण किसी प्रथमा प्रिया के

    कुंठित ओढ़नी के संकुचित वेष्टन में;

    इसी तरह सौंदर्य कभी आँख-मिचौनी नहीं खेल रहा था।

    पृथिवी की गहराई से

    कभी दोनों आँखें इसी तरह जली नही हैं।

    'काज़ीरंगा' या 'डबका' में।

    आज मेरे बरामदे के कोने में पृथिवी की सब माधुरी

    इकट्ठी हो गई है दोनों टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं के बीच में

    चिक्कन पिच्छिल बदन है एक मेंढ़क का।

    मेंढ़क है, उसका और कुछ भी परिचय नहीं है

    उसका भी है जीवन का एक क्षण!

    तब हम दोनों बंधु हैं, हम दोनों में

    स्वप्न का विनिमय हो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 22)
    • रचनाकार : महिम बरा
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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