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दूध नदी

doodh nadi

विजय सिंह

विजय सिंह

दूध नदी

विजय सिंह

और अधिकविजय सिंह

    (काँकेर नगर में बहने वाली नदी)

    दूध नदी की कल कल से मैंने कई बार गडिया पहाड़ के शिखर

    को छुआ है

    नदी का नाम

    दूध नदी

    कैसे पड़ा

    क्या गडिया पहाड़ जानता है

    या जानते हैं शहर के लोग

    मुझे पता है

    गडिया पहाड़ की

    मुँह लगी है दूध नदी

    गडिया पहाड़ है तो दूध नदी है

    दूध नदी है तो शहर है

    दूध नदी को जानने वाले लोग

    कहाँ गए

    वे जानते थे

    दूध की तरह उफनती नदी से उनके खेतों में आती थी हरियाली

    उनका मानना था

    इसके पानी में दूध जैसी मिठास है

    जिसको चख़कर वे

    निहाल हो जाया करते थे

    वे दिन पानी की तरह पारदर्शी और दूध की तरह सुंदर थे

    इसलिए शहर में चमक थी और यहाँ बसने

    वालों का मन फूल की तरह खिला हुआ था

    दूध नदी को जानने वाले लोग

    अब शहर में नहीं रहे

    नहीं रहा वह किस्सा

    जब गडिया पहाड़ का बाघ

    नदी के दूधिया पानी में उतरकर मुँह धोता,

    और नदी की मछलियों से बतियाता, रेत में खेलता

    और पालतू जानवर की तरह मुँह उठाकर वापस चल देता जंगल की ओर

    आज भी

    गडिया पहाड़ के जानवर

    दूध नदी के पास आते हैं

    लेकिन उल्टे पाँव

    लौट जाते हैं जंगल की ओर

    गडिया पहाड़ के जानवर

    दूध नदी से नहीं डरते, डरते हैं

    शहर के लोगों से

    जहाँ भीड़ है, शोर शराबा है

    बंदूक की आवाज़ है

    दूध नदी कब से शहर में बह रही है यह किस हालात में है?

    कोई नहीं जानता

    जबकि

    दूध नदी के पुल से निकलती है हज़ार-हज़ार

    क़िस्म-क़िस्म की गाड़ियाँ, लक्जरी बसें और जाने क्या क्या

    रोज़ दिन यहीं से कितने यात्री पहुँचते हैं अपने-अपने घर

    यहीं से गुजरता है लालबत्ती में बैठे मंत्रियों-अधिकारियों का क़ाफ़िला

    पढ़ने वाले लड़के लड़कियाँ यहीं से होकर पहुँचते हैं अपने स्कूल-काँलेज

    आफ़िस-कचहरी, बाज़ार जाने वाले लोगों का रास्ता भी यही है

    और तो और

    सब्जी बेचने वालों की बैलगाड़ियाँ भी रोज़ सुबह धूल उड़ाती, धड़धड़ाती यहीं से निकलती हैं

    लेकिन किसी के चर्चे में

    किसी के बातचीत में

    दूध नदी नहीं आती

    जबकि

    बरसों से राजापारा, अन्नापूर्णा पारा, भंडारीपारा और शहर के अनेक घरों के चौखट को

    छूती एक आस लिए बूँद-बूँद बह रही है दूध नदी

    कि कभी उसकी आँखों में भी समुद्र का पानी उफान मारेगा

    मुख्य बाज़ार के लकदक-भागमदौड़ के बीच शहर के पुराने पुल को अपनी बाँहों में थामे कब से

    आस लिए देख रही है शहर के लोगों को

    कि आएँगे उसके पास

    शहर के लोग

    राजी-ख़ुशी पूछेंगे उससे, पूछेंगे हाल-चाल

    लेकिन कोई नहीं आता

    आतें भी हैं तो शहर की सारी गंदगी छोड़ उसे और मरने के लिए छोड़ जातें हैं

    जबकि शहर के लोग जानते हैं

    कि शहर के ह्रदय से बहने वाली इकलौती नदी है दूध नदी

    शहर के लोग नहीं जानते

    कि दूध नदी मलाजकडूंम से निकलकर, महानदी के सरंगपाल से मिलती है

    कि दूध नदी से गुजरती है राष्ट्रीय राजमार्ग

    कि दूध नदी के पुल से एक शहर दूसरे शहर को जोड़ता है

    कि दूध नदी से शहर की पहचान है

    मैं जानता हूँ

    दूध नदी शहर का धड़कता हुआ दिल है, जिससे शहर की साँसे चलती है तो

    गडिया पहाड़ शहर का चौड़ा माथा है, जिससे लोगों के चेहरों में चमक है

    मुझे दुख: है

    कि शहर के लोग यह नहीं जानते

    दूध नदी को मैं जानता हूँ

    और दूध नदी मुझे

    जब भी इसके पास से गुजरता हूँ

    यह मुझे पुकारती है

    इसकी आवाज़ सुन इसके पास बैठता हूँ

    देख सकता हूँ

    इसके आँखों में पानी नहीं है

    दूध नदी

    कब से पुकार रही है

    जिसे गडिया पहाड़ के अलावा

    और कोई सुनना नहीं चाहता!

    स्रोत :
    • रचनाकार : विजय सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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