एक क्रांति एक रूमाल

ek kranti ek rumal

जितेन्द्र उधमपुरी

जितेन्द्र उधमपुरी

एक क्रांति एक रूमाल

जितेन्द्र उधमपुरी

और अधिकजितेन्द्र उधमपुरी

    घुप अँधेरा है आस-पास

    नहीं सूझता हाथ को हाथ

    इस वीरान सुनसान में

    कुछ सुनाई नहीं देता

    कुछ दिखाई नहीं देता

    चहुँ ओर छाए हैं उदास बादल।

    पर

    निर्णय है मेरा

    सारा अँधेरा पीना है

    मुझे जीना है

    मैं नहीं

    एक अंग बन अँधेरे का

    स्वीकारूँगा, कबूलूँगा इसे

    नहीं माँगता मैं दया-दान

    भीख माँगू, माँगूँ रोटी

    मेरा हक़ है वह हिस्सा मेरा

    चुराने नहीं दूँगा हिस्सा अपना

    बग़ावत

    हाँ, बग़ावत ही आज मेरा नारा है।

    माँगती है हर सुबह नया

    एक नारा, एक बग़ावत, एक संघर्ष

    और माँगती है

    एक क्रांति और गर्म लहू जवानी का।

    यह सच है कि

    सच बोलने वालों को

    नाम देकर

    मुजरिम, बाग़ी, विद्रोही

    लगाया जाता है उन पर

    अक्सर आरोप देशद्रोह का

    चढ़ाया जाता है फाँसी

    कर देते हैं छलनी जिस्म उनका

    गर्म गोलियों से

    ताकि कोई आवाज़ रोशनी माँगे

    और माँगे नई सुबह कोई

    पर आवाज़ दबा सका है कौन?

    भला रोक सका है कोई,

    सुबह को उगने से।

    चाहे लालिमा हो उषा काल की

    या हो

    जवान गर्म लहू की

    यह प्रमाण है अरुणोदय का।

    मंसूर, सुकरात, ईसा

    जीवित हैं सभी

    यहीं-कहीं आस-पास हमारे

    रूह में हमारी

    मार सकता है कौन, उनके सपनों को?

    तेरी चूड़ियों की छन-छन

    रुनझुन तेरी पायल की

    सुने एक अरसा हुआ

    एक उम्र गुज़र गई

    सितारों जड़ा तेरा दुपट्टा

    मन मेरा देखने को तरसता है।

    वह तेरा खुलकर हँसना, खिलखिलाना

    शरमा जाना अपने-आप

    और देखते ही देखते, बाँहों में समा जाना

    सब आता है याद मुझे।

    वह रूमाल तेरा

    जिसके कोने पे काढ़ा था तूने

    नाम अपना

    मेरे पास अब भी है

    निशानी तेरे प्यार की।

    वह फूलदार स्वेटर

    जिसका एक-एक घर बुना था

    मेरे लिए, बड़े चाव, बड़े शौक़ से

    वह स्वेटर तेरा हो गया है ढीला

    बाँहें भी कुछ हो गई हैं लंबी

    और इन दिनों

    सिकुड़ गया है वजूद मेरा

    महसूस होता है यूँ

    जैसे चोगा चोला हो

    किसी इंक़लाबी का।

    पर

    इस पहनावे में मुझे

    मिलता है गहरा सुकून

    कभी हँस देता हूँ

    अपने-आप पर मैं।

    बेड़ियाँ मेरे हाथ-पाँव की

    हो गई हैं ढीली

    और

    लगती हैं कुछ भारी-भारी।

    रात में अचानक

    खनखना जाती हैं कभी

    ये कड़ियाँ, ये बेड़ियाँ

    तो लगता है जैसे

    उचट गई होगी, तेरी नींद भी

    और खनक गए होंगे

    तेरे पाँव के बिछुए

    छन, छन, छन।

    पिछली बार

    फूल मोतिये के जो तू लाई थी

    मुरझा गए हैं चाहे

    अब भी बसी है उनमें

    तेरी मीठी ख़ुशबू

    और अब

    मेरे जन्मदिन पर तू

    कोई रूमाल भेजे मुझे

    तो साथ अपने नाम के

    चारों कोनों पे

    अपनी लम्बी-पतली उँगलियों से

    काढ़ना ये चार अक्षर भी

    क़ैद!

    कशमकश!

    कुर्बानी!!!

    क्रांति!!!!

    ताकि मुझे महसूस हो

    मेरे इस क़ैदख़ाने से

    बाहर भी बुन रहा है कोई

    एक क्रांति, एक इतिहास।

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक डोगरी कविता चयनिका (पृष्ठ 172)
    • संपादक : ओम गोस्वामी
    • रचनाकार : जितेन्द्र उधमपुरी
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2006

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