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दो सॉनेट

do sonnet

अनुवाद : शंकरलाल पुरोहित

विभुदत्त मिश्र

अन्य

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और अधिकविभुदत्त मिश्र

    एक

    जरा की कराल छाया इस देह मन के आकाश पर

    कि एक दिन आएगी घेर मरण का महाशंख फूँककर

    यौवन के सपने, सुख, श्री गौरव गान

    महाकाल की लहरों में पल में होंगे म्लान

    इन नील कजरारे केशों पर छाएगी श्वेत वेदना

    गलित दशन, नेत्र ज्योतिहीन स्थिर अचंचल

    होगा कंपन, रोम-रोम में मधुर सिहरन

    उद्दाम उद्धत यह तन होगा शिथिल शीतल

    आज के प्रमत्त व्यक्ति खो देंगे वाग्मिता का तेज

    मुग्ध विधुर कवि की लेखनी से छंद जाएगा मर

    आँख से मिटेगा स्वप्न, उड़ जाएगा कल्पना का पक्षी

    प्रीत भरे प्राणपात्र से जब रस सारा जाएगा झर

    उस दिन आनंद में भर युगल कर पसार कर,

    कहूँगा-स्वागत, प्रिय! यह जीवन अंतिम दोसर।

    दो

    जिस दिन आएगा बुलावा, जाने यह धरा छोड़,

    भूल कर माया-मोह, काटकर बंधन की डोर

    सारे प्रिय, परिचित, संगी-साथी, वादी-प्रतिवादी

    कितने हँसी-आँसू भरी धूल में विशाल स्वप्नपुरी

    हज़ार जंजाल दग्ध वेदना में विदीर्ण ये प्राण,

    अगणित सपनों में मुग्ध, प्रणय प्रलेप में शीतल

    कितनी मधुर अनुभूति, नेह-प्रेम की माधुरी,

    सब याद आएँगे नेत्र आँसू में होंगे सजल

    तब तुमसे होगी भेंट यदि इस कवि की,

    गहन आश्लेष में भर लेगा आख़िरी बार

    धो दूँगा आँसू से तुम्हारा हृदय, कपोल सब

    कहूँगा-विदा दो, इस जीवन में नहीं भेंट अब”

    पुनर्जन्म यदि सच तो फिर उस जनम में,

    फिर होगी भेंट अनागत फागुनी भोर में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 146)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : विभुदत्त मिश्र
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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