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दो पाँव

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विजय कुमार

अन्य

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विजय कुमार

दो पाँव

विजय कुमार

और अधिकविजय कुमार

    हर जगह कुछ गलियाँ है

    जिनका अपना धीरज है

    धीरज के साथ खड़े दड़बों में

    हम अब भी ढूँढ़ सकते हैं

    बहुत सारे बचे हुए लोगों को

    ये लोग बच गए हैं—रक्तचाप, मधुमेह

    दिल की बीमारियों से

    ज़रा, नींद, बेहोशी से बच गए हैं

    मक्खियों, मच्छरों और जरासिमों से बच गए हैं

    अंत इनका हो नहीं सका दंगा, फ़साद, आगजनी,

    गाली-गलौज और दुर्घटनाओं से

    ये महान् विचार, अच्छी भाषा, महँगे फ़र्नीचर से बच गए हैं

    भूख इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकी

    ये मूसलाधार बारिश और फाँसी के तख़्तों से बच गए

    अति आधुनिक क़िस्म की तिजोरियों के बारे में इन्हें कुछ नहीं मालूम

    छत उड़ गई इनकी, ये ज़िंदा रहे

    ये ज़िंदा रहे इश्तहारों, विज्ञापनों, बैनरों के बावजूद

    नाकाबंदी, घेराबंदी, लाठीचार्ज, टीयर गैस

    कर्फ़्यू, शूट एट साइट के बावजूद

    ये अजर-अमर लोग

    ये सिर खुजाते रहे बुलडोज़रों के आगे

    ये आध्यात्मिक प्रवचनों में कभी गए नहीं

    पर उपस्थित रहे धरती की छाती पर

    पुराकथा के नायकों से

    ईश्वर तुम्हारी इस प्रयोगशील दुनिया में

    कोई भी तरीक़ा नहीं ऐसा

    ये मर जाएँ, खप जाएँ

    नामोनिशान मिट जाए इनका

    और यह एक जादू है

    कि रोज़ सुबह होती है

    इसे कुछ पुराने लोग उम्मीद कहते हैं

    रोज़ अँगीठी से धुँआ उठता है

    रोज़ पतीली में कुछ खदकता है

    सीलन भरे बंद दरवाज़े खुलते हैं

    दो पाँव बाहर निकल पड़ते हैं

    चप्पल फटकारते

    बहुत सीधी और सरल भाषा में

    दुनिया के नेटवर्क पर पूछे कोई

    भला कौन रोक सकता है

    गली से बाहर निकलते

    पृथ्वी पर घिसटते हुए दो पाँवों को।

    स्रोत :
    • पुस्तक : चाहे जिस शक्ल से (पृष्ठ 111)
    • रचनाकार : विजय कुमार
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1995

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