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दीवानगी

divangi

सावजराज

सावजराज

दीवानगी

सावजराज

और अधिकसावजराज

    तुम्हारी मुरकीली आँखों की छाँव में रहकर

    मेरी आँखें पाती हैं तानाशाह की आँखों में आँख डालने की हिम्मत

    बेख़ौफ़ मेरी आँखों से डरकर झपकने लगती हैं शहंशाह की पलकें

    लूड़क और लाचारी देखने को अभ्यस्त आततायी लौट जाते हैं

    मेरी आँखों में उभर आई लौ और ललक से घबराकर

    तुम्हारे चंचल चक्षुओं के आश्रय में

    मेरी आँखों ने आँखों का अर्थ-विस्तार पाया

    तुमने अपने दाँतों के बीच दबाया मेरा निचला होंठ

    मेरे लबों पर उतर आया लहू

    हमने यूँ ही गर्म लहू से फागुन खेला

    और रक्तपिपासु साम्राज्य की चूलें हिलने लगीं

    तुम्हारे ऊष्ण ओष्ठ की छुअन पाकर

    मेरे ओष्ठ पुकारने लगे हैं इंक़लाबी नारे

    परस्पर मुँह जुठलाते हुए हमारा इश्क़ परवान चढ़ता गया

    और हमारी जीभें होती गईं और अधिक ज़िद्दी

    तुम्हारी ज़ुबान पर कुछ देर ठहरकर बुलंद हुआ मेरा नाम

    और सत्ता के हलक़ में फँस गया

    साम्राज्यों की नाक में दम कर रखा है

    मेरी देह में महकती तुम्हारी साँसों की गंध ने

    आलिंगन लेते हुए मैंने उतार लिए तुम्हारे वक्ष अपनी छाती में

    यूँ मैंने अपना सीना कुछ चौड़ा किया

    जिससे टकराकर पुलिसिया लाठियाँ टूट जाती हैं

    मेरे हाथों को अपने हाथों में लेकर तुमने दबाया

    मैंने उससे सीखा स्पर्श का सलीक़ा

    कि इससे अधिक स्पर्श किसी के साथ बरती गई हिंसा है

    तुम्हारे नितम्बों को अपनी पीठ पर लादकर

    तुम्हें ढोते हुए मैंने जाना

    कि प्रेम में होती है कितनी नर्मी और गर्माहट

    दो क़दम साथ चलकर तुम्हारे

    मैं लाँघ आया आदि मानव से आधुनिक मानव तक का युग

    तुम्हारे सहवास में मैंने पाई मनुष्यता

    मैं तुम्हारे प्रेमपाश में बँधकर आज़ाद हुआ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सावजराज
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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