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देवी

dewi

जो भी कुछ चाहूँगी माँग लूँगी

और तुम कहोगे—‘तथास्तु’

सामान्य याचना से अलग है

मेरा मान-मनौअल फिर भी

क्या माँगूँ आख़िर

कुबेर का भंडार

इंद्र का सिंहासन

लक्ष्मी का रूप-लावण्य

वाग्देवी के सार्थक वचन—

है ही क्या मेरा

क्या मेरा ही सब-कुछ है?

सालवन में कच्चे सोने-सी बसंत ऋतु

अंतरिक्ष के बीच तारे के पेट में अंजुरी भर पानी

घास के मैदान में अधीर झींगुर

हा-हा भूख की मुट्ठी में

कनकी भर अन्न

आख़िर क्या चाहिए?

नामर्द का इंगित चाकू

फाड़ डालता है साड़ी किसी की भी

अकाल वज्रपात में हो जाते हैं भस्म आँसू किसी के

ढह जाते हैं रास्ते सारे

किस ग्रह-नक्षत्र की ताली से

ख़ून की हर बूँद से जन्म लेता है एक-एक दानव

काश गढ़ सकती मैं कुछ प्रतिकार

वनस्पति की लंबी साँस छूकर

ढूँढ़ ला सकती है आकाश-माटी के

स्नेह बंधन की डोर,

उच्चारित कर सकती है

शब्द-अशब्द का ओंकार?

दे सकते हो तो दे दो—

सबसे शक्तिशाली अस्त्र—अपना

तेज़-वीर्य, शुभकामनाओं भरे बाण और भाले

हल्की कर दूँगी मैं पृथ्वी

संहार करूँगी महिषासुर।

स्रोत :
  • पुस्तक : आधा-आधा नक्षत्र (पृष्ठ 92)
  • रचनाकार : प्रतिभा शतपथी
  • प्रकाशन : मेघा बुक्स

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