जब मैं बाहर आया
मेरे हाथों में
एक कविता थी और दिमाग़ में
आँतों का एक्स-रे।
वह काला धब्बा
कल तक एक शब्द था;
ख़ून के अँधेरे में
दवा का ट्रेडमार्क
बन गया था।
औरतों के लिए गै़र-ज़रूरी होने के बाद
अपनी ऊब का
दूसरा समाधान ढूँढ़ना ज़रूरी है।
मैंने सोचा!
क्योंकि शब्द और स्वाद के बीच
अपनी भूख को ज़िंदा रखना
जीभ और जाँघ के स्थानिक भूगोल की
वाजिब मजबूरी है।
मैंने सोचा और संस्कार के
वर्जित इलाक़ों में
अपनी आदतों का शिकार
होने के पहले ही बाहर चला आया।
बाहर हवा थी
धूप थी
घास थी
मैंने कहा आज़ादी…
मुझे अच्छी तरह याद है—
मैंने यही कहा था
मेरी नस-नस में बिजली
दौड़ रही थी
उत्साह में
ख़ुद मेरा स्वर
मुझे अजनबी लग रहा था
मैंने कहा—आ-ज़ा-दी
और दौड़ता हुआ खेतों की ओर
गया। वहाँ कतार के कतार
अनाज के अँकुए फूट रहे थे
मैंने कहा—जैसे कसरत करते हुए
बच्चे। तारों पर
चिड़ियाँ चहचहा रही थीं
मैंने कहा—काँसे की बजती हुई घंटियाँ…
खेत की मेड़ पार करते हुए
मैंने एक बैल की पीठ थपथपाई
सड़क पर जाते हुए आदमी से
उसका नाम पूछा
और कहा—बधाई…
घर लौटकर
मैंने सारी बत्तियाँ जला दीं
पुरानी तस्वीरों को दीवार से
उतारकर
उन्हें साफ़ किया
और फिर उन्हें दीवार पर (उसी जगह)
पोंछकर टाँग दिया।
मैंने दरवाज़े के बाहर
एक पौधा लगाया और कहा—
वन-महोत्सव…
और देर तक
हवा में गर्दन उचका-उचकाकर
लंबी-लंबी साँस खींचता रहा
देर तक महसूस करता रहा—
कि मेरे भीतर
वक़्त का सामना करने के लिए
औसतन, जवान ख़ून है
मगर, मुझे शांति चाहिए
इसलिए ख़ाली दड़बे में
एक जोड़ा कबूतर लाकर डाल दिया
‘गूँ... गुटरगूँ… गूँ… गुटरगूँ…’
और चहकते हुए कहा—
यही मेरी आस्था है
यही मेरा क़ानून है
इस तरह जो था उसे मैंने
जी भरकर प्यार किया
और जो नहीं था
उसका इंतज़ार किया।
मैंने इंतज़ार किया—
अब कोई बच्चा
भूखा रहकर स्कूल नहीं जाएगा
अब कोई छत बारिश में
नहीं टपकेगी।
अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में
अपना नंगा चेहरा नहीं पहनेगा
अब कोई दवा के अभाव में
घुट-घुटकर नहीं मरेगा
अब कोई किसी की रोटी नहीं छीनेगा
कोई किसी को नंगा नहीं करेगा
अब यह ज़मीन अपनी है
आसमान अपना है
जैसा पहले हुआ करता था—
सूर्य, हमारा सपना है
मैं इंतज़ार करता रहा...
इंतज़ार करता रहा…
इंतज़ार करता रहा…
जनतंत्र, त्याग, स्वतंत्रता…
संस्कृति, शांति, मनुष्यता…
ये सारे शब्द थे
सुनहरे वादे थे
ख़ुशफ़हम इरादे थे
सुंदर थे
मौलिक थे
मुखर थे
मैं सुनता रहा…
सुनता रहा…
सुनता रहा…
मतदान होते रहे
मैं अपनी सम्मोहित बुद्धि के नीचे
उसी लोकनायक को
बार-बार चुनता रहा
जिसके पास हर शंका और
हर सवाल का
एक ही जवाब था
यानी कोट के बटन-होल में
महकता हुआ एक फूल
गुलाब का।
वह हमें विश्वशांति के और पंचशील के सूत्र
समझाता रहा। मैं ख़ुद को
समझाता रहा—’जो मैं चाहता हूँ—
वही होगा। होगा—आज नहीं तो कल
मगर सब कुछ सही होगा।'
भीड़ बढ़ती रही।
चौराहे चौड़े होते रहे।
लोग अपने-अपने हिस्से का अनाज
खाकर—निरापद भाव से
बच्चे जनते रहे।
योजनाएँ चलती रहीं
बंदूक़ों के कारख़ानों में
जूते बनते रहे।
और जब कभी मौसम उतार पर
होता था। हमारा संशय
हमें कोंचता था। हम उत्तेजित होकर
पूछते थे—यह क्या है?
ऐसा क्यों है?
फिर बहसें होतीं थीं
शब्दों के जंगल में
हम एक-दूसरे को काटते थे
भाषा की खाई को
ज़ुबान से कम जूतों से
ज्यादा पाटते थे
कभी वह हारता रहा…
कभी हम जीतते रहे…
इसी तरह नोक-झोंक चलती रही
दिन बीतते रहे…
मगर एक दिन मैं स्तब्ध रह गया।
मेरा सारा धीरज
युद्ध की आग से पिघलती हुई बर्फ़ में
बह गया।
मैंने देखा कि मैदानों में
नदियों की जगह
मरे हुए साँपों की केंचुलें बिछी हैं
पेड़—
टूटे हुए रडार की तरह खड़े हैं
दूर-दूर तक
कोई मौसम नहीं है
लोग—
घरों के भीतर नंगे हो गए हैं
और बाहर मुर्दे पड़े हैं
विधवाएँ तमग़ा लूट रही हैं
सधवाएँ मंगल गा रही हैं
वन-महोत्सव से लौटी हुई कार्यप्रणालियाँ
अकाल का लंगर चला रही हैं
जगह-जगह तख़्तियाँ लटक रही हैं—
‘यह श्मशान है, यहाँ की तस्वीर लेना
सख़्त मना है।’
फिर भी उस उजाड़ में
कहीं-कहीं घास का हरा कोना
कितना डरावना है
मैंने अचरज से देखा कि दुनिया का
सबसे बड़ा बौद्ध-मठ
बारूद का सबसे बड़ा गोदाम है
अख़बार के मटमैले हाशिए पर
लेटे हुए, एक तटस्थ और कोढ़ी देवता का
शांतिवाद, नाम है
यह मेरा देश है…
यह मेरा देश है…
हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक
फैला हुआ
जली हुई मिट्टी का ढेर है
जहाँ हर तीसरी ज़ुबान का मतलब—
नफ़रत है।
साज़िश है।
अंधेर है।
यह मेरा देश है
और यह मेरे देश की जनता है
जनता क्या है?
एक शब्द… सिर्फ़ एक शब्द है :
कुहरा, कीचड़ और काँच से
बना हुआ…
एक भेड़ है
जो दूसरों की ठंड के लिए
अपनी पीठ पर
ऊन की फ़सल ढो रही है।
एक पेड़ है
जो ढलान पर
हर आती-जाती हवा की ज़ुबान में
हाँऽऽ... हाँऽऽ करता है
क्योंकि अपनी हरियाली से
डरता है।
गाँवों में गंदे पनालों से लेकर
शहर के शिवालों तक फैली हुई
‘कथाकलि’ की अमूर्त मुद्रा है
यह जनता…
जनतंत्र में
उसकी श्रद्धा
अटूट है
उसको समझा दिया गया है कि यहाँ
ऐसा जनतंत्र है जिसमें
ज़िंदा रहने के लिए
घोड़े और घास को
एक जैसी छूट है
कैसी विडंबना है
कैसा झूठ है
दरअस्ल, अपने यहाँ जनतंत्र
एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान
मदारी की भाषा है।
हर तरफ धुआँ है
हर तरफ कुहासा है
जो दाँतों और दलदलों का दलाल है
वही देशभक्त है
अंधकार में सुरक्षित होने का नाम है—
तटस्थता। यहाँ
कायरता के चेहरे पर
सबसे ज्यादा रक्त है।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिये, सबसे भद्दी
गाली है
हर तरफ कुआँ है
हर तरफ खाई है
यहाँ, सिर्फ़, वह आदमी, देश के क़रीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर ग़रीब है
मैं सोचता रहा
और घूमता रहा—
टूटे हुए पुलों के नीचे
वीरान सड़कों पर आँखों के
अंधे रेगिस्तानों में
फटे हुए पालों की
अधूरी जल-यात्राओं में
टूटी हुई चीज़ों के ढेर में
मैं खोई हुई आज़ादी का अर्थ
ढूँढ़ता रहा।
अपनी पसलियों के नीचे
अस्पतालों के बिस्तरों में
नुमाइशों में
बाज़ारों में
गाँवों में
जंगलों में
पहाड़ों पर
देश के इस छोर से उस छोर तक
उसी लोक-चेतना को
बार-बार टेरता रहा
जो मुझे दोबारा जी सके
जो मुझे शांति दे और
मेरे भीतर-बाहर का ज़हर
ख़ुद पी सके।
—और तभी सुलग उठा पश्चिमी सीमांत
…ध्वस्त…ध्वस्त…ध्वांत…ध्वांत…
मैं दोबारा चौंककर खड़ा हो गया
जो चेहरा आत्महीनता की स्वीकृति में
कंधों पर लुढ़क रहा था,
किसी झनझनाते हुए चाकू की तरह
खुलकर, कड़ा हो गया…
अचानक, अपने-आपमें ज़िंदा होने की
यह घटना
इस देश की परंपरा की—
एक बेमिसाल कड़ी थी
लेकिन इसे साहस मत कहो।
दरअस्ल, यह पुट्ठों तक चोट खाई हुई
गाय की घृणा थी
(ज़िंदा रहने की पुरज़ोर कोशिश)
जो उस आदमख़ोर की हविस से
बड़ी थी।
मगर उसके तुरंत बाद
मुझे झेलनी पड़ी थी—सबसे बड़ी ट्रैजेडी
अपने इतिहास की
जब दुनिया के स्याह और सफ़ेद चेहरों ने
विस्मय से देखा कि ताशकंद में
समझौते की सफ़ेद चादर के नीचे
एक शांति-यात्री की लाश थी
और अब यह किसी पौराणिक कथा के
उपसंहार की तरह है कि इसे देश में
रोशनी उन पहाड़ों से आई थी
जहाँ मेरे पड़ोसी ने मात
खाई थी।
मगर फिर मैं वहीं चला गया
अपने जुनून के अँधेरे में
फूहड़ इरादों के हाथों
छला गया।
वहाँ बंजर मैदान
कंकालों की नुमाइश कर रहे थे
गोदाम अनाजों से भरे पड़े थे और लोग
भूखों मर रहे थे
मैंने महसूस किया कि मैं वक़्त के
एक शर्मनाक दौर से गुज़र रहा हूँ
अब ऐसा वक़्त आ गया है जब कोई
किसी का झुलसा हुआ चेहरा नहीं देखता है
अब न तो कोई किसी का ख़ाली पेट
देखता है, न थरथराती हुई टाँगें
और न ढला हुआ ‘सूर्यहीन कंधा’ देखता है
हर आदमी, सिर्फ़, अपना धंधा देखता है
सबने भाईचारा भुला दिया है
आत्मा की सरलता को भुलाकर
मतलब के अँधेरे में (एक राष्ट्रीय मुहावरे की बग़ल में)
सुला दिया है।
सहानुभूति और प्यार
अब ऐसा छलावा है जिसके ज़रिए
एक आदमी दूसरे को,अकेले—
अँधेरे में ले जाता है और
उसकी पीठ में छुरा भोंक देता है
ठीक उस मोची की तरह जो चौक से
गुज़रते हुए देहाती को
प्यार से बुलाता है और मरम्मत के नाम पर
रबर के तल्ले में
लोहे के तीन दर्जन फुल्लियाँ
ठोंक देता है और उसके नहीं-नहीं के बावजूद
डपटकर पैसा वसूलता है
गरज़ यह है कि अपराध
अपने यहाँ एक ऐसा सदाबहार फूल है
जो आत्मीयता की खाद पर
लाल-भड़क फूलता है
मैंने देखा कि इस जनतांत्रिक जंगल में
हर तरफ़ हत्याओं के नीचे से निकलते है
हरे-हरे हाथ, और पेड़ों पर
पत्तों की ज़ुबान बनकर लटक जाते हैं
वे ऐसी भाषा बोलते हैं जिसे सुनकर
नागरिकता की गोधूलि में
घर लौटते मुसाफ़िर
अपना रास्ता भटक जाते हैं
उन्होंने किसी चीज़ को
सही जगह नहीं रहने दिया
न संज्ञा
न विशेषण
न सर्वनाम
एक समूचा और सही वाक्य
टूटकर
‘बि ख र’ गया है
उनका व्याकरण इस देश की
शिराओं में छिपे हुए कारकों का
हत्यारा है
उनकी सख़्त पकड़ के नीचे
भूख से मरा हुआ आदमी
इस मौसम का
सबसे दिलचस्प विज्ञापन है और गाय
सबसे सटीक नारा है
वे खेतों में भूख और शहरों में
अफ़वाहों के पुलिंदे फेंकते हैं
देश और धर्म और नैतिकता की
दुहाई देकर
कुछ लोगों की सुविधा
दूसरों की ‘हाय’ पर सेंकते हैं
वे जिसकी पीठ ठोंकते हैं—
उसकी रीढ़ की हड्डी ग़ायब हो जाती है
वे मुस्कराते हैं और
दूसरे की आँख में झपटती हुई प्रतिहिंसा
करवट बदलकर
सो जाती है
मैं देखता रहा…
देखता रहा…
हर तरफ ऊब थी
संशय था
नफ़रत थी
मगर हर आदमी अपनी ज़रूरतों के आगे
असहाय था। उसमें
सारी चीज़ों को नए सिरे से बदलने की
बेचैनी थी, रोष था
लेकिन उसका ग़ुस्सा
एक तथ्यहीन मिश्रण था :
आग और आँसू और हाय का।
इस तरह एक दिन—
जब मैं घूमते-घूमते थक चुका था
मेरे ख़ून में एक काली आँधी—
दौड़ लगा रही थी
मेरी असफलताओं में सोए हुए
वहसी इरादों को
झकझोर कर जगा रही थी
अचानक, नींद की असंख्य पर्तों में
डूबते हुए मैंने देखा
मेरी उलझनों के अँधेरे में
एक हमशक्ल खड़ा है
मैंने उससे पूछा—’तुम कौन हो?
यहाँ क्यों आए हो?
तुम्हें क्या हुआ है?’
‘तुमने पहचाना नहीं—मैं हिंदुस्तान हूँ
हाँ—मैं हिंदुस्तान हूँ’,
वह हँसता है—ऐसी हँसी कि दिल
दहल जाता है
कलेजा मुँह को आता है
और मैं हैरान हूँ
‘यहाँ आओ
मेरे पास आओ
मुझे छुओ।
मुझे जियो। मेरे साथ चलो
मेरा यक़ीन करो। इस दलदल से
बाहर निकलो!
सुनो!
तुम चाहे जिसे चुनो
मगर इसे नहीं। इसे बदलो।'
मुझे लगा—आवाज़
जैसे किसी जलते हुए कुएँ से
आ रही है।
एक अजीब-सी प्यार भरी गुर्राहट
जैसे कोई मादा भेड़िया
अपने छौने को दूध पिला रही है
साथ ही किसी छौने का सिर चबा रही है
मेरा सारा जिस्म थरथरा रहा था
उसकी आवाज़ में
असंख्य नरकों की घृणा भरी थी
वह एक-एक शब्द चबा-चबाकर
बोल रहा था। मगर उसकी आँख
ग़ुस्से में भी हरी थी
वह कह रहा था—
‘तुम्हारी आँखों के चकनाचूर आईनों में
वक़्त की बदरंग छायाएँ उल्टी कर रही हैं
और तुम पेड़ों की छाल गिनकर
भविष्य का कार्यक्रम तैयार कर रहे हो
तुम एक ऐसी ज़िंदगी से गुज़र रहे हो
जिसमें न कोई तुक है
न सुख है
तुम अपनी शापित परछाईं से टकराकर
रास्ते में रुक गए हो
तुम जो हर चीज़
अपने दाँतों के नीचे
खाने के आदी हो
चाहे वह सपना अथवा आज़ादी हो
अचानक, इस तरह, क्यों चुक गए हो
वह क्या है जिसने तुम्हें
बर्बरों के सामने अदब से
रहना सिखलाया है?
क्या यह विश्वास की कमी है
जो तुम्हारी भलमनसाहत बन गई है
या कि शर्म
अब तुम्हारी सहूलियत बन गई है
नहीं—सरलता की तरफ़ इस तरह
मत दौड़ो
उसमें भूख और मंदिर की रोशनी का
रिश्ता है। वह बनिए की पूँजी का
आधार है
मैं बार-बार कहता हूँ कि इस उलझी हुई
दुनिया में
आसानी से समझ में आने वाली चीज़
सिर्फ़ दीवार है।
और यह दीवार अब तुम्हारी आदत का
हिस्सा बन गई है
इसे झटक कर अलग करो
अपनी आदतों में
फूलों की जगह पत्थर भरो
मासूमियत के हर तकाज़े को
ठोकर मार दो
अब वक़्त आ गया है तुम उठो
और अपनी ऊब को आकार दो।
सुनो !
आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूँ
जिसके आगे हर सच्चाई
छोटी है। इस दुनिया में
भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क
रोटी है।
मगर तुम्हारी भूख और भाषा में
यदि सही दूरी नहीं है
तो तुम अपने-आपको आदमी मत कहो
क्योंकि पशुता—
सिर्फ़ पूँछ होने की मजबूरी नहीं है
वह आदमी को वहीं ले जाती है
जहाँ भूख
सबसे पहले भाषा को खाती है
वक़्त सिर्फ़ उसका चेहरा बिगाड़ता है
जो अपने चेहरे की राख
दूसरों के रूमाल से झाड़ता है
जो अपना हाथ
मैला होने से डरता है
वह एक नहीं ग्यारह कायरों की
मौत मरता है
और सुनो! नफ़रत और रोशनी
सिर्फ़ उसके हिस्से की चीज़ हैं
जिसे जंगल के हाशिए पर
जीने की तमीज़ है
इसलिए उठो और अपने भीतर
सोए हुए जंगल को
आवाज़ दो
उसे जगाओ और देखो—
कि तुम अकेले नहीं हो
और न किसी के मुहताज हो
लाखों हैं जो तुम्हारे इंतज़ार में खडे़ हैं
वहाँ चलो। उनका साथ दो
और इस तिलस्म का जादू उतारने में
उनकी मदद करो और साबित करो
कि वे सारी चीज़ें अंधी हो गई हैं
जिनमें तुम शरीक नहीं हो…’
मैं पूरी तत्परता से उसे सुन रहा था
एक के बाद दूसरा
दूसरे के बाद तीसरा
तीसरे के बाद चौथा
चौथे के बाद पाँचवाँ…
यानी एक के बाद दूसरा विकल्प
चुन रहा था
मगर मैं हिचक रहा था
क्योंकि मेरे पास
कुल जमा थोड़ी सुविधाएँ थीं
जो मेरी सीमाएँ थीं
यद्यपि यह सही है कि मैं
कोई ठंडा आदमी नहीं हूँ
मुझमें भी आग है—
मगर वह
भभककर बाहर नहीं आती
क्योंकि उसके चारों तरफ़ चक्कर काटता हुआ
एक ‘पूँजीवादी’ दिमाग़ है
जो परिवर्तन तो चाहता है
मगर आहिस्ता-आहिस्ता
कुछ इस तरह कि चीज़ों की शालीनता
बनी रहे।
कुछ इस तरह कि काँख भी ढकी रहे
और विरोध में उठे हुए हाथ की
मुट्ठी भी तनी रहे… और यही है कि बात
फैलने की हद तक
आते-आते रुक जाती है
क्योंकि हर बार
चंद सुविधाओं के लालच के सामने
अभियोग की भाषा चुक जाती है
मैं ख़ुद को कुरेद रहा था
अपने बहाने उन तमाम लोगों की असफलताओं को
सोच रहा था जो मेरे नज़दीक थे।
इस तरह साबुत और सीधे विचारों पर
जमी हुई काई और उगी हुई घास को
खरोंच रहा था, नोच रहा था
पूरे समाज की सीवन उधेड़ते हुए
मैंने आदमी के भीतर की मैल
देख ली थी। मेरा सिर
भिन्ना रहा था
मेरा हृदय भारी था
मेरा शरीर इस बुरी तरह थका था कि मैं
अपनी तरफ़ घूरते उस चेहरे से
थोड़ी देर के लिए
बचना चाह रहा था
जो अपनी पैनी आँखों से
मेरी बेबसी और मेरा उथलापन
थाह रहा था
प्रस्तावित भीड़ में
शरीक होने के लिए
अभी मैंने कोई निर्णय नहीं लिया था
अचानक, उसने मेरा हाथ पकड़कर
खींच लिया और मैं
जेब में जूतों का टोकन और दिमाग़ में
ताजे़ अख़बार की कतरन लिए हुए
धड़ाम से—
चौथे आम चुनाव की सीढ़ियों से फिसलकर
मत-पेटियों के
गड़गच्च अँधेरे में गिर पड़ा
नींद के भीतर यह दूसरी नींद है
और मुझे कुछ नहीं सूझ रहा है
सिर्फ़ एक शोर है