दरवाज़े खुले हैं हमेशा…
darvaze khule hain hamesha…
दरवाज़े खुले हैं हमेशा…
कितना कहना आसान होता है
पुरुषों के लिए
दिक्कत है तो निकल जाओ
दरवाज़े खुले हैं हमेशा
इस ग़फ़लत में मत रहना
कि कोई तुम्हें मनाने आएगा
वो हतप्रद थी
काश! काश वो कहता
कोई दरवाज़ा बाधक नहीं होगा तुम्हारे सपनों में
कोई दरवाज़ा बाधक नहीं होगा तुम्हारे अपनों में
पर तुम…
ठुकरा देते दशकों के साथ को
एक क्षण में…
कह जाते हो ये बात
कितनी आसानी से
उलीच देते हो अपने अंदर के ग़ुस्से को
और वो हतप्रद-सी ढूँढ़ती रहती है
उस घर मे अपने वजूद को
वह घिसती रही ख़ुद को
इस घर को चमकाने में
निकल जाओ
कितना कहना आसान होता है
पुरुषों के लिए
पर क्या सोचा है एक बार भी
उन सप्तपदी और सात वचनों को
सिर्फ़ निभाने की ज़िम्मेदारी
उसके हिस्से ही क्यों आई
काश! काश कि लड़कियाँ भी कह पाती
निकल जाओ मेरी दुनिया से
खुले हैं दरवाज़े तुम्हारे लिए जैसे मेरे लिए हैं
गर वक्त दिया है तुमने इस घर को
तो मैने भी सींचा है अपने ख़ून से
और सजाया है अपने कुचले हुए सपनों से
पर सब सुन कर भी
रुक जाते हैं क़दम हर लड़की के
क्योंकि वर्षों बरस पहले किसी ने कहा था
लड़कियाँ डोली में ससुराल जाती अच्छी लगती हैं
और लौटती अच्छी लगती हैं अर्थी में…
- रचनाकार : रंजना जायसवाल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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