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साइकिल

saikil

राजीव कुमार तिवारी

अन्य

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और अधिकराजीव कुमार तिवारी

    गहरा बहुत गहरा जुड़ाव है

    हमारी नॉस्टेलजिया से

    साईकिल का

    एक सुखद प्रतीति से गुज़रकर

    हम गुज़रे कल में पहुँच जाते हैं

    याद आते हैं बचपन के वो दिन

    जब साईकिल से

    एक प्रेयसी की हद तक प्रेम करते थे हम

    किसी खेल से कम रोमाँचकारी

    कम दिलचस्प नहीं था

    साईकिल चलाना उन दिनों

    जब नहीं मिली थी अभी

    अपनी पहली साईकिल

    भाई जो मुझसे बड़े हैं

    उम्र में तीन साल

    उन्हीं की साईकिल से

    सीखा था साईकिल चलाना

    ज़्यादा गिरना पड़ना

    चोट खाना नहीं पड़ा था

    पाँव अच्छी तरह

    ज़मीन तक पहुँच जाते थे

    सीट पर बैठने के बाद

    कद औसत से कुछ ज़्यादा होने की

    यह सुविधा थी

    हाँ कुशल चालक

    साईकिल चलाते चलाते ही हुआ

    आठवीं ज़मात में पहुँचा

    तब मिली थी

    ख़ुद की पहली साईकिल

    स्कूल घर से चार किलोमीटर दूर था

    आने जाने की असुविधा तो नहीं थी

    घर से रिक्शा भाड़ा मिल जाता था

    जो ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही हुआ करता था

    बचे हुए पैसों से

    चाट, पाचक और गुड़ के लट्ठे

    का भी जुगाड़ हो जाता था जिसमें

    पर दूसरे बहुत से साथियों की तरह

    मुझे भी चाहिए थी साईकिल

    ताकि अपनी जमात में

    थोड़ा और रुआब गाँठ सकूँ

    ख़ूब चलाई थी

    स्कूल और कॉलेज के दिनों में साईकिल

    हर छोटा बड़ा काम

    साईकिल से निबटाया करता था

    चाहे स्कूल कॉलेज जाना हो

    ट्यूशन क्लास पहुँचना हो

    बाज़ार करना हो

    या फिर दोस्तों के घर मिलने जाना हो

    साईकिल तो थी ही

    आज भले ही

    उससे बेहतर और ज़्यादा तेज सवारियाँ

    चलाता हूँ

    पर वो और तरह का आनंद था

    मस्ती से एकदम सराबोर

    दोस्तों से साईकिल रेस लगाने में

    हैंडल छोड़कर साईकिल चलाने में

    स्लो साइक्लिंग में

    क्या-क्या मज़े थे

    सोचने भर से

    रोमाँच से भरपूर हो जाता है

    आज भी मन।

    स्रोत :
    • रचनाकार : राजीव कुमार तिवारी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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