किसी को नहीं मालूम था कि
यह रहस्यमय पक्षी कहाँ से आया
संभवतः किसी खाड़ी या किसी अज्ञात द्वीप से
पिछला तूफ़ान इसे उठा लिया था
या यह समुद्री सिवारों के घने कुंजों में पैदा हुआ था
या किसी दूसरे नक्षत्र से, वातावरण से, दूसरे लोक से
टपक पड़ा
बूढ़े मल्लाहों ने भी कभी
बर्फ़ से ढके समुद्रों में इसे नहीं देखा
न किसी यात्री को यह कहीं मिला
इसका रूप-रंग आदमियों का सा था, देवताओं का सा
और कवियों की तरह खोया-खोया रहता था
पहले यह मंदिरों के गुंबदों के पास मँडराया करता था
पर पुरोहितों ने इसे अशकुन समझ कर उड़ा दिया
उसी रात को यह एक प्रकाश-स्तंभ पर जा बैठा
पर रखवारे ने इसे उड़ा दिया
कि कहीं जहाज़ राह न भूलने लगें
किसी ने इसे मुट्ठी भर दाना नहीं दिया
न आश्रय दिया
एक ने कहा—यह नरभक्षी पक्षी है जो भेड़ों को
खा जाता है!
दूसरे ने कहा— यह भूखा प्रेत है
जब वह उनींदे बच्चों पर
अपने पंखों की छाँह कर देता
तो माताएँ ख़ुद पत्थर मार कर इस रहस्यमय
अभागे अनाश्रित पक्षी को उड़ा देती थीं
शायद यह पक्षी बादलों के बीच छिपे
किसी पर्वत की गुफा से उड़ता भटकता आ गया था
या उसका संगी तीर से घायल हो चुका था—
यह पक्षी रूप-रंग में मानव की तरह था, देवदूतों की तरह
और कवि की तरह एकाकी
वह लोगों में घुलना मिलना चाहता था
पर लोग उसे अशुभ समझ कर उड़ा देते थे
जब सदा की तरह गेहूँ के खेत बाढ़ में डूब गए
तो लोगों ने कहा—बाढ़ इसके कारण आई है!
जब सदा की तरह अकाल में ढोर-डंगर मरने लगे
तो लोगों ने कहा—यह पक्षी पशुओं को खा जाता है!
और चूँकि किसी ने उसे एक बूँद पानी
नहीं पीने दिया
तो वह पक्षी मुर्दा विद्रोही सैम्सन की तरह
गिर पड़ा
तब एक भोला-भाला मछुआ उसके
कोमल पंखों को समेट कर उसे उठा लाया
बोला—यह उस पवित्र पक्षी का शव है
कोई बोला—“यही पक्षी तो
साधु-संतों की गुफाओं में फल रख आया करता था।
एक भिखारी ने बताया एक बार जाड़े की रात में
इस पक्षी ने अपने पंखों से उसे गरमाहट दी!
और देश की जनता के राजनीतिक नेता ने कहा
है—यह पक्षियों का राजा था
और मैं इसे जानता ही नहीं था!
किंतु राजनीतिक नेता के सबसे छोटे लड़के ने कहा—
वह एकाकी, भावुक, चिंताशील और विनम्र था
इसके पंख मुझे दो कि मैं उससे अपनी ज़िंदगी के बारे
में लिखूँ!
जो बजाय मेरे पिता की ज़िंदगी के
इस पक्षी की ज़िंदगी से बहुत मिलती जुलती है
मैं इस पक्षी में अपने को देखता हूँ!
- पुस्तक : देशान्तर (पृष्ठ 333)
- संपादक : धर्मवीर भारती
- रचनाकार : जोर्जे दे लीमा
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी
- संस्करण : 1960
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