हम बहुत छोटे लोग हैं
हमारे पास वक़्त का कोई शेड्यूल नहीं
हम अपना पूरा दिन खेत में गेहूँ की बालियों के साथ ख़र्च कर देते हैं
हम इतने छोटे लोग हैं
कि पृथ्वी पर बहुत धीमे-धीमे पैर रखते हैं
हम ज़मीन को अपने ऊपर अहसान मानते हैं
घर पर रहते हुए
हमारा ज़्यादातर वक़्त
पिता के जूते पॉलिश करने में बीतता है
शाम को उनके जूतों के सोल ठीक करते हैं
चूँकि हमारा कोई कबूतरख़ाना नहीं
दिल्ली में
या भोपाल में
या देश की किसी भी राजधानी में
इसलिए हम ज़्यादातर
फ़सल, सूरज, बारिश, बादल और आसमान के बीच रहते हैं
हम बैठ जाते है पेड़ के नीचे
और प्रतीक्षा करते रहते हैं—
आम के पक कर गिर जाने तक
इस प्रतीक्षा में कई मौसम गुज़र जाते हैं
कई बार जीवन भी ख़त्म हो जाते हैं
हमारे पास समय ही समय है
फिर भी हम बैठते नहीं ठहाके लगाने के लिए—
शराब की महफ़िलों में
क्योंकि हम बहुत छोटे लोग हैं
इसलिए कई घंटे ईश्वर को ताकते हुए
हम भूल जाते हैं कि हमें घर भी जाना है
छोटा होने की वजह से ही
हमें प्रेम करना भी नहीं आता
क्योंकि हमें नहीं आता कि
दो औरतों को अपने दो हाथों में कैसे रखा जाता है
कैसे एक औरत को घर में रखा जाता है
और कैसे दूसरी को साथ लेकर घूमना है
कभी सुख-दुख की
कोई कविता लिख भी लेते हैं
तो उसे छुपा देते हैं
या टाँग देते हैं—
रात के किसी अँधेरे कोने में
दरअस्ल,
कुल जमा जीवन में हम इतने छोटे हैं
कि किसी के आँसू का वज़न नहीं होगा
जब हमें दफ़नाने के लिए ले जाया जाएगा
किसी को कोई वज़न नहीं लगेगा
किसी का कांधा नहीं दुखेगा...