चंद्रलोक में संध्या

chandrlok mein sandhya

विनोद चंद्र नायक

विनोद चंद्र नायक

चंद्रलोक में संध्या

विनोद चंद्र नायक

और अधिकविनोद चंद्र नायक

    संध्या आती नारंग दिनांत में,

    तारों की छाया तोरण प्रांतर,

    यह प्रांतर गैरिक मरु भू।

    गैरिक वलय के छोर पर

    कृष्ण शिला आकाश ही आकाश में

    उगती तुम्हारा पृथ्वी

    मेघ कलंकित

    सागर में खेलती तुम्हारी पृथ्वी

    नील श्याम स्नात।

    नैऋत में रक्त जवा

    शनि का इंगित।

    यह पथ प्रांतर कहता कुंकुमित।

    इस प्रांतर के छोर पर रंगोली अंकित।

    गोधूलि अरुण

    प्रगल्भ विलास नहीं लाती इस प्रांतर में

    इस प्रांतर मशान में निर्जनता सृजित करे

    तुम्हारी पृथ्वी पर उग आते,

    उद्भिद श्यामल आलोक में

    निशक्त्त करे यह प्रांत

    यह प्रांतर प्रेत की विचरण भूमि!!

    दुःशीला मंथरा सम

    दीपित पृथ्वी

    विषपात्र की छाया में

    मायाविनी छवि करती सृजन।

    दूर चलती-भूखंड लांछन तले

    चल रही संप्रसारण की योजना

    छिद्र पात्र जल रिस जाता

    मधु उस परिचालक के भांड से।

    मधु चक्र पर जब

    बैठती मधुमक्खी

    सहयोगहीन आंदोलन

    मरण मंत्र में होता आग्नेय वर्षण!

    यही पृथ्वी, एकदा एडम-ईव

    स्वर्ग का सृजन यहाँ

    स्वर्ग के हाथों दे गए चाबी भंडार की,

    शैतान स्वयं वह सर्प,

    विश्वामित्र सम

    अनुशासन का मध्य स्वर्ग सृजता!!

    इस चंद्र के प्रांतर में

    बिंबवती पृथ्वी के

    नभ अभिसार में

    अभिलासी होता आतंकित

    ईथर के हर स्तर पर

    तैर आता, सुनाई देता

    हिंसा और शोषण का संगीत।

    आग्नेय कोण में

    प्रदक्षिणा करता धूमकेतु

    अस्तमित सूर्य

    चिर दीप्त ध्रुव

    प्रिय संभाषण देता

    सप्तर्षि तारों के बीच।

    यह प्रांतर गाढ़ नील।

    इस आकाश में इस मृतिका तले

    अशरीरी लक्ष्य आत्म-विलोप में अकाल।

    वह किस चंद्र सभ्यता चंद्र इतिहास में

    शायद साम्राज्यपंथी अत्याचार चंद्र इतिहास में

    शायद साम्राज्यपंथी अत्याचार, हाहाकार और हतसाँस।

    आज भी दुःसवप्न-सा फैला

    कोई नहीं गाता वह गौरव गाथा, हाय!

    अहल्या पृथ्वी

    अगणित सदियों पर अग्नि स्नान कर

    चंद्र सम होगी जब मृत

    बदलेगी मरुभूमि सजीव सब्ज़

    शुष्क महासागर परिखा

    कलंक की घनकृष्णा रेखा

    होगी उसके वक्ष पर

    भूल कर दैनिक गति अपने कक्ष पर

    करती होगी यह पृथ्वी

    सूर्य की प्रदक्षिणा

    मानपत्र शिलालिपि की गवेषणा से

    कहो कौन करेगा जयगान!

    उस मृत प्रांतर पर भू-रात्रि का

    अन्य ग्रह से अवतरण कर

    कौन अभियात्री सैनिक करके जिज्ञासा

    पूछेगा यह प्रश्न पुनर्बार।

    इस चंद्र प्रांतर में

    तारा, ग्रह-नीहारिका आलोक भास्वर

    देखता मैं चकित हीराकणी, मणि-मणिक मर्कत में

    योजन विस्तृत एक स्वर्णशिला पर

    बैठकर कौतुक में

    मैं देखता पृथ्वी धीरे चलती अस्त शिखा

    कृष्णाभ गोधुलि

    बिंबान्वित करती चंद्रगिरि।।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 77)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : विनोद चंद्र नायक
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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