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चाँदरात में लकड़ी की चोरी

chandarat mein lakDi ki chori

फ्रेंक आन्द्रे जाम

फ्रेंक आन्द्रे जाम

चाँदरात में लकड़ी की चोरी

फ्रेंक आन्द्रे जाम

और अधिकफ्रेंक आन्द्रे जाम

    तुम कई बार उसका ख़्वाब देख चुके हो, लेकिन तुम अपना

    काम कभी दिन के निपट उजाले में नहीं कर पाओगे, सब की

    नज़रों के सामने, प्रकाश की छाया में। यह भी सच है कि कहीं

    भीतर तुम उसे सह भी नहीं पाते। इसकी जगह अपने रास्ते

    बनाओ, वे अब तुम्हारा आपा हैं। तुम जाते रहो, हमेशा तरह,

    रात में अपनी लकड़ी चोरी के लिए, वही तुम्हारी फ़ितरत है,

    इतना पक्का है।

    ***

    सूना कमरा

    और वह साँस

    तुम्हारी आत्मा की आग

    बाहर झाँकती है

    या यह पीड़ा है

    नाचती हुई?

    ***

    टोह लेती

    स्मृति

    आकर्षण और पछतावे

    टोकरी में

    सहस्त्रदल कमल

    विस्मरण होगा

    हम समय का पीछा करते हैं

    लगभग

    नहीं बोलते

    हम कहें भी तो क्या?

    हमें पहले ही

    देर हो चुकी है

    ***

    रात

    तिरती हुई

    बंदरगाह पर

    विचार के

    पैने घाव

    स्याह पानी में

    देर-सी राख

    थोड़ा सोना

    और तब भी नक्षत्र

    हमारे हर नाख़ून पर

    कौन डूबता है?

    जागता है कौन?

    ***

    जीवन

    कल्पित

    मुक्त

    लेकिन कब?

    प्यार तक से

    बाहर

    अनजाने में

    हम ज़ोर से बात करते हैं

    पा लेने के बाद

    सुनना बंद कर देते हैं

    बुलबुल

    अपनी उड़ान में लाल फूल

    हम बचते हैं

    स्वीकारते हैं

    सभी कुछ होता है

    ओह कैसे पढ़ा जाए

    आँखों को

    बाज़ीगर की

    ***

    कई बार उस के लिए बहुत कुछ नहीं करना पड़ता, कमरे या

    गली में ज़रा-सी चहल-क़दमी और वह दूसरा हमारे भीतर लंगर

    डाल देता है, जो नज़रों से एक बार टूटने पर धीरे-धीरे गिरता

    है, स्वयं को परिष्कृत कर पुनर्जन्म लेता है, केंद्र में अपना द्वीप

    स्थापित करते हुए। पर क्या हर बार वह द्वीप ही होता है? या

    पानी से उभरता ज्वालामुखी? जब दिन अनिवार्य हों, संख्या

    और समय असहज हों और अक्सर अनुत्तरित याचना उस

    कुम्हार के बारे में सोचने की ओर ले जाती हो जो अब अलावा

    अपने बर्तनों के किसी और से नहीं बोलता। इस पर हँसना ही

    इसका निदान है। या और कहीं ध्यान लगाना। टहलने निकल

    जाओ, ख़ुद को वहाँ कोने में छोड़ कर। जब वापस आओगे, यह

    देखना आश्चर्यजनक होगा कि हमारी निष्ठा कितनी करुण हो

    उठी है क्योंकि तुम, निश्चय ही, हिले तक नहीं। तब भी ये

    पलायन आश्चर्य ले आए हैं, बल्कि कई क़िस्म के नशे।

    ***

    रिक्ति की कुटी

    घास के संबंध सूत्र

    छिद्रों से आती

    प्रकाश की शिराएँ

    शुद्धता :

    नाट्यरत

    भोर से लेकर

    रक्ताभ आकाश तक

    कुएँ के पास

    चक्र

    भाग्य

    खच्चर का माथा

    प्रतिच्छायाएँ

    निरंतर लौटती हुई

    निरंतर

    भ्रमित

    शायद तुम

    खोज पाओ कभी!

    ***

    फीका नीला

    हरा भूरा

    आँख का नक्षत्र

    संसार को ताकता हुआ

    और कोई वश नहीं

    रात पर

    जलते हुए

    चार पत्ते

    नदी की सतह पर

    उठो

    हृदय

    उठो!

    ***

    समुद्र पर बारिश

    मुट्ठी भर फेन

    झूलता हुआ दरवाज़ा

    तुम्हारे अंतस में

    बाहर आना है

    या भीतर जाना है?

    कोई आया

    चला गया

    मोती का गूदा

    ख़ून

    खौलता तेल

    कौन जाने?

    ***

    निश्चय

    के हल

    जंग खाए

    प्रजलता के

    दो टुकड़े

    तथ्य

    ***

    जब तुम आते हो, अक्सर तुम्हारी कलाई पर तुम्हारा पक्षी बैठा

    होता है। कम से कम लोग यही सोचते हैं। तुम आते हो और

    इंतज़ार करते हो। पक्षी तुम्हारी तरह नहीं, तुरंत अधीर हो

    उठता है, अपने रखवाले के दस्ताने खुजलाने लगता है उनमें

    पंजे गड़ाने लगता है। फिर वह चमड़े के अपने टोप के नीचे

    अपनी चोंच को कुछ ज़्यादा ही खरोंचने लगता है—उसे दरार

    नज़र चुकी है और अब तुम्हारे पास कोई रास्ता बाक़ी नहीं

    है : तुम उसका शिरस्त्राण उतारते हो, उसके पंजों पर पड़ी गाँठ

    ढीली करते हो और वो रहा वह, दूर जाता हुआ। हर बार आग

    का फ़ीता हवा में चमक कर लोप हो जाता है और तुम्हें पक्का

    पता होता है कि कौन उस निशाने पर है, कौन मारा गया है

    क्योंकि वह उसे तुम्हारे पास ले जाता है। लेकिन वहाँ उसे क्या

    दिखाई दिया, प्रकाश और जीवन से चीख़ती उस चीज़ में, तुम

    कभी जान नहीं पाओगे : उस क्षण अपने क़दमों में पड़े उस

    शिकार का विवरण देने के सिवा तुम कभी कुछ नहीं कर

    पाओगे जो भले ही अब तक कराह रहा है, लेकिन जो दूसरी

    ओर जा चुका है। अंततः, तुम अंधे हो, कहने को शिकार

    करते लेकिन यह बटोरने से ज़्यादा कुछ नहीं और तब भी तुम्हें

    उस पक्षी का ज़रा ख़्याल नहीं, हवा में उसके फड़फड़ाने का, या

    उसकी उड़ान की वक्रता का। यह इसलिए क्योंकि वह तुम्हारे

    भीतर है। तुम कभी तय नहीं कर पाए कहाँ, लेकिन यह सब

    होता तुम्हारे भीतर ही है।

    ***

    बारिश में

    मोती-सी खोपड़ी

    गड्ढ़ा

    कटा हुआ मोती

    किसे याद है

    उनका जन्म

    ***

    धूप में अपने हाथ के बारे में

    क्या तुम आश्वस्त हो?

    और अपने हाथ के बारे में रात में?

    क्या तुम

    गाना गवा सकते हो

    ख़ाली संदूक़ से?

    हम दौड़ते हैं

    निस्पंद खड़े हो जाते हैं

    तलाशते हैं

    और पा नहीं पाते

    रसातल से भयभीत

    लोमड़ियाँ

    ***

    पल भर की मुलाक़ात

    स्त्री से

    हिमख़ोर की

    ज्वालाएँ

    गली

    क़दमों से तेज़

    सभी कुछ

    बहुत दूर

    हमेशा

    जहाँ भी हम जाएँ

    पंखे तक

    मातृभाषा में बोलते हैं

    ***

    लाल-पंखी

    फूल

    या पंखुरियाँ

    चिड़िया की

    ज़रूरत क्या है

    इतना दृढ़ होने की?

    बल्कि चेष्टा करो

    स्वप्न होने की

    कभी-कभी

    स्त्रोत

    अभिमंत्रित

    कृत्यों का

    ***

    संसार

    आँसुओं की सीमा तक

    चमकता हुआ

    अभी चोट खाई

    छोटी-सी

    स्वर्ण-पत्ती

    ***

    उन्होंने किसी तरह तुम्हारे पाँव में फंदा डाल दिया है।

    ठीक-ठीक कहें तो उस समूची विशाल-मशीन ने—जिसे वह

    नियंत्रित और उत्पन्न करते हैं—वह काम उनके लिए किया

    था। और अब यह सीधे कहने की जगह वे शब्द-जाल के सहारे

    तुम्हें तुम्हारे ठीक से चल पाने के लिए दोष देते हैं। वे तुम्हें

    अपनी मेज़ पर आमंत्रित करते हैं। दो आत्मलिप्त दावतों के

    बीच वे फ़र्माते हैं कि आख़िर आधिक्य का महत्त्व ही क्या है।

    तुम लज्जित हो अपनी पीड़ा और प्रयत्न पर। इसलिए तुम

    ज़रा-सा खाते हो। बड़ी शराफ़त से। एक सच्चे बंदर। और

    तब भी वे तुम्हें उस ज़रा-से फंदे को रात की विराटता की तरह

    महसूस नहीं करने देंगे। लेकिन उसका संक्रमण संभव नहीं।

    या सिर्फ़ मुश्किल से। यह बारीक मसला है। हाँ, जहाँ तक उन

    बातों का प्रश्न है, वे अपनी पलकें तक नहीं हिलाएँगे। तुम

    समझ गए न?

    ***

    पृथ्वी

    इस सुबह कितनी हरी

    अभी ही

    रसातल से बाहर आई

    कोशिश करो

    पीछे मुड़ने की

    ***

    दिन की उजास

    रात

    भय

    सन्नाटा और बारिश

    ज़रा-सी हिलती है

    समूची वस्तु

    तुम विदा लेते हो

    दुबारा

    सिर्फ़ वापस

    आने के लिए

    उसी घर में

    जन्मता है सब कुछ

    ***

    ऊपर

    रात

    यहाँ

    अँधकार

    बेचैनी ने

    हठ पकड़ लिया है

    क्या वह गई?

    नहीं

    सिर्फ़ आवाज़ें

    ठहाके

    अतीत

    अब भी पीछे ही है

    ***

    प्रतीक्षा का

    सफ़ेद झुंड

    अंगार

    कृत्य थप्पड़ मारता है

    प्रेम हो या आतंक

    सभी आग पकड़ लेते हैं

    वे लड़खड़ाते हैं

    छले जाते हैं

    तब भी

    उनके मुँह देख लेते हैं

    दुनिया

    बारिश के पीछे है

    ***

    नीचे आना

    या ऊपर जाना

    या दोनों

    तब भी

    गुज़र जाता है

    एक और बरस

    स्रोत :
    • पुस्तक : दरवाज़े में कोई चाबी नहीं (पृष्ठ 363)
    • संपादक : वंशी माहेश्वरी
    • रचनाकार : फ्रेंक आन्द्रे जाम
    • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
    • संस्करण : 2020
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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