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बोड़ा

boDa

विजय सिंह

और अधिकविजय सिंह

    पहली बारिश में भीगकर

    जंगल की मिट्टी हँसती है

    और

    धूप की उजास में सरई जंगल

    जी उठता है

    सरई जंगल में यह

    बोड़ा के आँख खोलने का समय है

    और उधर दूर

    बिहाने-बिहाने (सुबह)

    टुकनी मुँड में उठाए, हाथ में कुटकी लिए गाँव की औरतें बोड़ा

    कोदने (खोदने) के लिए निकल पड़ती हैं जंगल की ओर

    वे पहुँचती हैं सरई के जंगल में

    एक पंक्ति, एक लय, एक ताल में

    वे जानती हैं

    बोड़ा कोई नहीं बोता, सरई जंगल बोता है प्रकृति की छाँव में

    वे जानती हैं छोटा-मटमैला

    जंगल का बोलता गोला

    धरती का सीना चीर

    किस जगह फूटता है

    शहर के बाज़ार को आँख तरेरने के लिए

    गाँव की बायले (औरत) मन

    लोहुन-लोहुन (झुक-झुककर) पाना (सूखी पत्ती) को हटा- हटाकर

    भुई (भूमि) को कोदती (खोदना) बोड़ा को बीनती हँसती-बतियाती सरई जंगल में आगे बढ़ती हैं

    बोड़ा खोदकर, बोड़ा बिनकर

    बोड़ा टुकनी, सोली-पैली (नाप का पुराना पैमाना) मुँडी में उठाकर

    बोड़ा बेचने दस-दस, बीस-बीस कोस दूर जंगल से नंगे पाँव चली आती हैं जगदलपुर के बाज़ार में

    वे आती हैं

    और शहर के बाज़ार में

    हड़कंप मच जाता है

    बोड़ा-बोड़ा के शोर में, बोड़ा के स्वाद में अच्छे-खासे शहर के बाज़ार को साँप सूँघ जाता है

    वे नापती हैं सोली-पैली से बोड़ा

    बोड़ा ख़रीदने वालों की भीड़ में

    हर बार हारता है

    शहर का चमचम बाज़ार!

    स्रोत :
    • रचनाकार : विजय सिंह
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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