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बीमारी में माँ

bimari mein maan

प्रमिला शंकर

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प्रमिला शंकर

बीमारी में माँ

प्रमिला शंकर

और अधिकप्रमिला शंकर

    वह लेटी थी—

    शांति की परत ओढ़े,

    लेकिन वह शाँति

    किसी थकी हुई

    युद्ध-भूमि जैसी थी।

    चेहरा—

    वह जो वर्षों तक

    मुझमें जीवन फूँकता रहा—

    अब स्वयं

    जीवन से रिहा होना चाहता था।

    मैं बैठी रही—

    उसके सिरहाने,

    कुछ कहते हुए,

    क्योंकि कहने लायक कुछ नहीं था।

    बीमारी—

    केवल शरीर की नहीं थी

    वह एक अस्वीकार था—

    मां की अदम्य जिजीविषा का

    धीरे-धीरे,

    अनुपस्थित हो जाना।

    वह अब भी पूछती थी—

    ‘तूने खाया?’

    जैसे

    उसका मरण भी

    मुझे भूखा रखे।

    वह थक चुकी थी

    पर थकान जताना

    जैसे उसे आता ही नहीं था।

    मैंने कई बार

    उसकी हथेली थामी—

    जो कभी

    मेरे बुखार की तपन चुरा लेती थी।

    आज वह स्वयं ज्वर में थी

    पर फिर भी—

    उसमें एक ठंडक बाकी थी

    मेरे लिए।

    मैं चाहती थी तुमको रोकना या

    कहना कि—

    माँ, रुको या

    माँ, लौट आओ उस रसोई के कोने में जहाँ तुम सर्दियों की धूप-सी बैठा करती थी।

    पर उस क्षण—

    शब्द नहीं, मौन अधिक

    सच्चा लगा मुझे

    बीमारी

    माँ को नहीं खा रही थी—

    वह केवल

    मां की उस भूमिका को धो रही थी

    जो उसने सालों तक निभाई थी

    बिना एक क्षण रुके

    अब वह थक चुकी थी—

    और शायद यही उसका एकमात्र

    ‘अपने लिए’ किया गया

    कर्म था—

    शरीर छोड़ देना।

    मैंने उसकी आँखों में झाँका—

    वहाँ कोई दुख नहीं था,

    पीड़ा,

    केवल एक दीर्घ प्रतीक्षा—

    जैसे कोई नदी

    सागर में मिल जाने से पहले

    थोड़ा ठहर जाए,

    अपना किनारा

    एक बार और देखने के लिए

    माँ की बीमारी एक देह की बात नहीं थी।

    वह एक भूमिका का विदा लेना था।

    एक मौन त्याग।

    एक अव्यक्त प्रेम का अंतिम आलोक।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रमिला शंकर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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