बंद टाकीज़
band takiz
मेरे घर के सामने
बंद टाकीज़ है
जिसे देख रहा हूँ बरसों से
मुहल्ले में सबसे बीच
लेकिन एकदम अकेला-अलगाया हुआ
अक्सर रात गए
कमरे में बैठकर
लिखता हूँ कविताएँ
खिड़की से देखता हूँ
टाकीज़ को एकटक ताकते
तब बेचैन हो जाता हूँ
लिखता हूँ अपना पता, विजय सिंह
बंद टाकीज़ के सामने, जगदलपुर
अक्सर देखता हूँ
रात गए टाकीज़ के सामने
बब्बू खाँ के रिक्शे ऊँघते हैं
हमेशा आधी रात में
जब गोरखा चौकीदार लाठी
की टक-टक के साथ
टाकीज़ के सामने से गुजरता है
तब बूढ़ा खान बाबा अपनी झोलंगी खाट से
नींद में उठता है और टाकीज़ की तरफ़ मुँह
करके पेशाब करता है
रात-रात भर
शहर के आवारा पशु
टाकीज़ की दीवार के पास
गोबर-पेशाब कर सूरज उगने से पहले
चल देते हैं उधर
जिधर हरी-हरी घास है
दिन के उजाले में
मुहल्ले के बच्चे
टाकीज़ के सिरहाने
कंची-पीठू का खेल-खेलकर
हँसते-रोते चल जाते हैं घर
टाकीज़ की ख़ामोशी में
रफ़ीक़ मिंयाँ ताज़ कॉटन सेंटर वाले
सिलते जाते हैं, गुदड़िया-गद्दे
धुनते जाते हैं रूई
टाकीज़ से चिपकी सड़क पर
दौड़ती हैं दिन भर
किस्म-किस्म की गाड़ियाँ
गुजरते-चलते हैं
शहर के पुराने-नए लोग
स्कूल जाते बच्चे, काँलेज जाती खिलखिलाती लड़कियाँ
दफ़्तर जाते बाबू, साहब, चपरासी
और यहीं से गुजरता है
हर रोज़ नशे में झूमता-बड़बड़ाता
सामंत गली का सामंत मंदहा
लेकिन टाकीज़ की ओर कोई नहीं देखता
बंद टाकीज़ का
शहर से कोई रिश्ता है या नहीं
यह मैं नहीं जानता
पर मैं जानता हूँ
बंद टाकीज़ अब भी शहर में है
यहाँ कोई मूँगफली वाला खड़ा होता है
न चाय-पान दुकान वाला
न मनचले लड़कों का झुँड
हाँ, टाकीज़ के सामने साँई किराना दुकान वाला
अपनी दुकान ज़रूर खोल कर रखता है
यहाँ रोज़ के ग्राहक खड़े होते हैं
और कभी-कभी
टाकीज़ की ओर मुँह उठाकर पूँछते हैं
यह बंद टाकीज़ है क्या?
और जवाब में साँई, आलू-प्याज की
बढ़ी हुई दाम बताता है
टाकीज़ के सामने सड़क पर
दिन-भर धूल उड़ती है
और मैं बिछी धूल को अपनी पुस्तकों से झाड़ता रहता हूँ
देखता हूँ टाकीज़ की रंग पलस्तर उड़ते दीवारों पर
धूल की मोटी परतों को
जिसे कोई साफ़ नहीं करता, मैं भी नहीं
मेरे लिए टाकीज़ की दरवाज़े पर जड़ा
आदम जमाने का ताला तिलस्म की तरह है
जिसे मैंने आज तक
किसी भी चाबी से खुलते नहीं देखा है
यह सोच मेरे लिए सुखद होता है कि
मैं खुल जा सिमसिम कहूँगा
और टाकीज़ का दरवाज़ा
किवदंतियों की तरह खुल जाएगा
मेरी आँखों के सामने
रंग पलस्तर उखड़ते दीवारों में हैं टिकट खिड़की
इस तरह, जिस तरह की
कि अभी आएगें
सैकड़ों हाथ
और फिर से उसे बाहों में भर लेंगें
वह जगह बिलकुल खाली है
जहाँ पोस्टर संवाद करती थी आदमियों से
और आदमी को खींचती थी
अपनी ओर
मैं देखता हूँ वहाँ चिड़िया बैठकर पंख पोछती है
और फुदकती है
मुझे ख़ुशी होती है
कि मेरे साथ
चिड़िया भी बंद टाकीज़ के पास है
टाकीज़ की जंग लगी मशीन के बारे में सोच-सोच
कर मैं परेशान हो जाता हूँ
सोचता हूँ क्या
अब भी उसके सपनों में आता होगा
बूढ़ा रम्मू ऑपरेटर
और खाँस-खाँस कर फ़िल्म चलाता होगा
कितनी कहानियाँ थी रम्मू ऑपरेटर
और टाकीज़ को लेकर
बाबा बताते हैं
बूढ़ा रम्मू था तो टाकीज़ थी
बूढ़ा रम्मू नहीं है तो टाकीज़ नहीं है
बताते हैं बाबा
शहर की पहली टाकीज़ है यह
और याद करते हैं अपने जवानी के दिन
प्रभात था इस टाकीज़ का नाम
तब शहर में
गिनती के लोग थे
गिनती के मकान थे
गिनती की गाड़ियाँ थीं
गिनती के रिक्शे थे
गिनती की सड़कें थीं
गिनती की दुकानें थीं
जहाँ हँसते थे लोग
और झूमते थे पेड़
मुझे दुख है तो सिर्फ़ इस बात का
कि मेरे शहर के लोगों को नहीं मालूम
कि यहाँ एक बंद टाकीज़ भी है
लेकिन मुझे ख़ुशी इस बात की है
मेरे पते में मेरे नाम के साथ लिखा जाता है बंद टाकीज़
मेरे लिए हमेशा यह कौतूहल का विषय रहा है
कि टाकीज़ की अंदर की खाली कुर्सियों में
कौन बैठता होगा?
वहाँ चूहे तो ज़रूर उछल-कूद करते होंगे
मकड़ियाँ जाले बुन ठाठ करती होंगी
दीवारों से चिपकी छिपकलियाँ
क्या जानती हैं बाहरी दुनिया के बारे में
क्या सोचती है बाहरी दुनिया के बारे में
इतने सालों से रूके पंखे
क्या एक जगह खड़े-खड़े उब नहीं गए होंगें?
क्या उनका मन
पृथ्वी की तरह घूमने का नहीं करता होगा?
सोचता हूँ
एक दिन
दरवाज़े में जड़े तिलस्मी ताले को तोड़कर
घूस जाऊँगा टाकीज़ के अंदर
और महसूस करूँगा इतने-इतने वर्षों के बाद
आदमी का स्पर्श उसे कैसा सुख देता है
फिर पर्दे को छूऊँगा
क्या अब भी चेहरे उसमें
हॅंसने-रोने के साथ
प्यार कर सकते हैं
फिर एक-एक कर बैठूँगा
धूल से लदी पड़ी कुर्सियों में
क्या महसूस करती हैं कुर्सियाँ
इतने वर्षों के बाद
आदमी के गंध को पाकर
तब देखूँगा आदमी के बोझ को पाकर
कुर्सियाँ खिल उठी हैं फूल की तरह
एकाएक चल पड़ेंगें
वर्षों से रूके पंखे
झड़ जाएगी
दीवालों में जमीं धूल की परतें
छुप जाएगी
मकड़ी और छिपकलियाँ
हँसने लगेंगे चूहे
उड़ने लगेगा दरवाजे पर लगा
आदम ज़माने का पुराना परदा
मैं देंखूँगा
आरती के साथ शुरू हो जाएगी
वह फ़िल्म
जो बरसों से
बंद टाकीज़ में
रूकी पड़ी है
- रचनाकार : विजय सिंह
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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