पाताललोक के प्रवेश द्वार के बग़ल के रास्ते के पटियों पर खड़े हुए
ऑरफ़ियस कुबड़ा गया हवा के तेज़ झोंके से
जिसने उसका कोट फाड़ दिया, वृक्षों की पत्तियाँ उछालते हुए
हाँफते हुए कुहरे के झुरमुट से परे। कारों की सामने की बत्तियाँ
हर नई लहर के साथ, मद्धम पड़ीं और चमकीं।
वह रुका काँच लगे दरवाज़े पर, अनिश्चित
कि वह आख़िरी सुनवाई के लिए काफ़ी समर्थ है।
उसने याद किए, उसके शब्द तुम अच्छे आदमी हो।
उसने उस पर पूरी तरह यक़ीन नहीं किया। गीतकार-कवियों के
आम तौर पर जैसा कि उसे पता था—हृदय ठंडे होते हैं।
यह एक चिकित्सासंबंधी बंदिश जैसी है। कला में परिपूर्णता
दी जाती है इस तरह के संताप के बदले।
सिर्फ़ उसके प्यार ने गरमाया था, उसे मनुष्य बनाया था।
जब वह उसके साथ होता था, अपने बारे में और तरह से सोचता था।
वह उसे अब निराश नहीं कर सकता था, जबकि वह मर चुकी थी।
उसने दरवाज़ा खोला। वह बरामदों और लिफ़्टों की भूलभुलैयाँ में
चलता गया
नीलाभ प्रकाश प्रकाश नहीं, धरती का अँधेरा था।
इलेक्ट्रानिक कुत्ते उसके पास से बेआवाज़ गुज़र गए।
वह कई मंज़िल नीचे उतरा, एक सौ, तीन सौ, नीचे।
वह ठंड में अकड़ रहा था। उसने पाया कि यह कहीं नहीं है।
हज़ारों हिमीभूत शताब्दियों के नीचे
राख की रोड़ी पर भस्म हुई पीढ़ियों की
एक ऐसा राज्य जिसका लगता है न तल था, न अंत।
ठसाठस भरी परछाईंयों के चेहरों ने उसे घेर लिया।
उसने कुछ को पहचाना। उसने अपने लहू की लय महसूस की।
उसने अपना जीवन उसके गुनाह के साथ महसूस किया
और उसको उनसे मिलने में डर लग रहा था जिनका उसने नुक़सान
किया था। लेकिन वे याद करने की सामर्थ्य खो चुके थे।
उन्होंने उसे सिर्फ़ झपकती उदासीन दृष्टि से देखा।
अपने बचाव के लिए उसके पास सप्ततंत्री वीणा थी।
उस में वह ले गया था धरती का संगीत, अतल से विरुद्ध
जो सारी आवाज़ को मौन में दफ़्न कर देता है।
संगीत उस पर हावी हुआ। वह निश्चेष्ट था।
उसने अपने को आदिष्ट गीत से घेर लिया ध्यान से सुनते हुए।
अपनी वीणा की तरह वह सिर्फ़ एक उपकरण बन गया।
इस तरह वह पहुँचा उस लोक शासकों के प्रासाद में।
पर्सिफ़ोन ने नंगी शाख़ाओं और गाँठदार टहनियों से काले
मुरझाए नाशपाती और सेब के वृक्षों के उद्यान में
उसका गहरे बैंगनी नीलम का सिंहासन, उसे सुना।
उसने गाया सुबहों का उजलापन और हरियाली में नदियाँ,
गुलाबी भोर के धुँधले जल के बारे में
रंगों के बारे में शिंगरफ, क़िरमिज़ी,
गेरुआ, नीला,
संगमरमर की खड़ी चट्टानों के नीचे समुद्र में तैरने का आनंद।
एक मछुआरे बंदरगाह की धमाचौकड़ी में अटारी पर भोजन के बारे में
शराब, नमक, जैतून के तेल, बादाम, सरसों, स्वाद के बारे में
अबाबील की, बाज़ की उड़ान के बारे में,
खाड़ी के ऊपर पैलिकन के एक झुंड की गली उड़ान के बारे में
गर्मियों की बारिश में लाइलैक फूलों की गंध के बारे में।
अपने शब्दों को हमेशा मृत्यु के विरुद्ध रचने के बारे में
शून्यता की स्तुति में कोई तुक स्वयं न बनाने के बारे में।
मैं नहीं जानती—देवी बोली—कि तुम उसे प्यार करते थे
लेकिन तुम यहाँ आए हो उसे रिहा कराने।
और वह तुम्हें लौटा दी जाएगी। बहरहाल, कुछ शर्ते हैं।
तुम्हें उससे बोलने की अनुमति नहीं है। न ही वापसी की यात्रा में
तुम्हें अपना सिर मोड़ने की, यह आश्वस्त होने के लिए कि वह
तुम्हारे पीछे है।
और फिर हर्मीज़ यूरीडिसी को सामने लाया।
(उसका चेहरा बदला हुआ, बिलकुल भूरा,)
उसकी पलकें झुकी हुई, उसके नीचे उसके कोड़ों की छाया।
वह भारी क़दमों से चल रही थी, हाथ द्वारा संचालित
अपने पथप्रदर्शक के। उसने बहुत चाहा
उसे नाम से पुकारना, उस नींद से उसे जगाना।
पर उसने संयम बरता क्योंकि उसने शर्त मानी थी।
और उनकी यात्रा शुरू हुई। वह पहले, और फिर लेकिन एकदम से नहीं,
देवता के चप्पलों की थाप और हलकी टपटप
उसके पैर बँधे कफ़न जैसी पोशाक के किनारों से।
एक सीधा ढलुवाँ चढ़ता हुआ रास्ता टिमटिमाता था
अँधेरे में एक सुरंग की दीवारों की तरह।
वह रुकता था और सुनता था। लेकिन फिर वे भी
रुक जाते थे, प्रतिध्वनि मंद पड़ जाती थी।
जब वह फिर चलना शुरू करता, दुहरी चाप फिर होने लगती।
कभी वह लगती पास, कभी अधिक दूर।
उसके विश्वास में एक संदेह उभर आया।
और उसने उसे इश्कपेंचा की तरह लपेट लिया।
रोने में असमर्थ, वह रोया ध्वस्त होने पर
मानवीय आशा के मृतकों के पुनर्जीवन की,
वह, अब, और सब दूसरे नश्वरों जैसा ही था,
उसकी वीणा मौन थी और वह बिना किसी बचाव के सो गया।
वह जानता था कि उसे विश्वास होना चाहिए और वह विश्वास नहीं
कर पा रहा था।
और काफ़ी लंबे समय तक बची रही
यह अनिश्चित सचाई।
सुबह हो रही थी। चट्टान के किनारे दीखने लगे
पाताल से प्रस्थान की प्रदीप्त आँख के नीचे।
वैसा ही हुआ जैसा उसने सोचा था। जब उसने अपना सिर घुमाया
उसके पीछे रास्ते पर कोई न था।
सूर्य। और आकाश, और आकाश में बदलियाँ
सिर्फ़ अब उसमें सब कुछ चीख़ रहा था : यूरीडिसी!
मैं तुम्हारे बिना कैसे रह रहूँगा, ओ मेरी सांत्वना-सखी?
लेकिन जड़ी-बूटियों की सुगंध थी, मधुमक्खियों का धीमा गुँजार।
और उसे नींद आ गई उसका कपोल गरम धरती पर।
- पुस्तक : दरवाज़े में कोई चाबी नहीं (पृष्ठ 116)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक अशोक वाजपेयी, रेनाता चेकाल्स्का
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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