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अनुवाद-अनुरोध

anuvad anurodh

रिया रागिनी

रिया रागिनी

अनुवाद-अनुरोध

रिया रागिनी

और अधिकरिया रागिनी

    तुमने मुझसे कभी ज़्यादा कुछ नहीं माँगा। माँगा भी तो कहा तो नहीं मुझसे यकायक। माँग सकते थे तुम—वह रिद्म का अधिकार जिस पर मेरी उँगलियों का इंतिज़ार करने का साहस टिकता है। यह भी माँग सकते थे कि मैं जाने दूँ, साँस की सबसे पसंदीदा ढलान या घुटने चटकाने की अपनी सबसे क़रीबी-परिचित आदत। बार-बार लगातार तुमने यही माँगा कि बस मैं अपनी देह की सब सीमाएँ जाने दूँ। मैं सोचती हूँ अब : काश, मैंने कहा होता, जैसे मैंने महसूस किया कि तुम्हारी-मेरी देह की ये सीमाएँ, रेखाएँ, क्षितिज थीं शायद?

    सीमाओं को, रेखाओं को, क्षितिज को

    इनके बीच पसरी

    इनकी सुकुमार निरंतरताओं को

    धुँधला देती हैं पुनरावृत्तियाँ

    अक्सर, नहीं?

    क्या ठोस होने का विस्तार धुँधलाना नहीं है?

    (तुमने कहा हमेशा, पुनरावृत्ति नहीं पुनराग्रह है, स्टाइन ने भी तो यही कहा)

    बार-बार इसी एक रेतनुमा माँग के संग मैं जागी, सोई, इसी के रहते मैंने समय मापा, इसी के संग बाज़ार से बच-बचकर निकली, कृतज्ञ हूँ। मगर मेरी जीभ के खुरदरेपन में नहीं होती अगर रेत की दख़्लंदाज़ी तो बन पाती शायद तुम्हारी पुनरावृत्तियों की माला—कोई पुनराग्रह… जैसे धागों के बीच की माइक्रोस्कोपिक जगहें, जहाँ सभी क्षितिज पाते विराम। परस्परता में हामी भरती पारदर्शिता, सीमाओं का अभाव तो नहीं न? क्या पुनरावृत्तियों के बने टीले भी जन्म दे सकते हैं—काँच के ढाँचों को? थोड़ा मैला ही सही—यह काँच, जैसे चीनी के बने खिलौने…

    अनुवाद में की गई सबसे सूक्ष्मतर भूल, क्या भाषा की भूल है! क्या यह वही भूल है जो ज़्यादा रोटी या ज़्यादा ब्रेड या ज़्यादा चावल भर खाने से हो बैठती है?

    एक-एक देह, एक-एक भाषा?

    स्रोत :
    • रचनाकार : रिया रागिनी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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