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आकार

akar

अनुवाद : चंद्रकांत बांदिवडेकर

जो कुछ भी कहना है

कहना चाहिए उसी के मार्फ़त ही

यह तो प्राथमिक शर्त है कहने की

और वह जो कुछ कहेगी

उसे झेलने वाले दूसरे ही :

कुछ नंगे पाँव तो कुछ बूट वाले

ऐसी है त्रिपुटी

दीप जला घट में यह

प्रतीक्षा करने वाली...

मैंने कहा : गुड़ की भेली पर

भिनभिनाने वाली मक्खियाँ

तो उसने कहा : चाँदनी की चम्पा;

मैंने हाथ में लिया

चाँदनी का नीला फूल

तो उसने जमा किया

मक्खियों का जत्था;

उस समय सुनने वाले दूसरे बोले :

बैंड पर बजाया जा रहा राष्ट्रगीत सुनना है!

ऐसी यह त्रिपुटी की कुश्ती

चेतना के पारंपरिक खुदे अखाड़े की

दीयों के आकार भरपूर बदल दिए

और प्रकाश के आकार बदलने का

संतोष कर लिया जी-भर

आख़िर संतोष भी तो मानने पर ही होता है

और आकार भी आख़िर होते हैं

मानने के प्रकार पर खड़े रहने वाले :

बुदबुदों पर के चमकने वाले

प्रकाश की तरह...

स्रोत :
  • पुस्तक : कविता मनुष्यों के लिए (पृष्ठ 117)
  • रचनाकार : मंगेश पाडगांवकर
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
  • संस्करण : 2006

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