ऐक्य आह्वान

aiky ahwan

कालिंदीचरण पाणिग्राही

और अधिककालिंदीचरण पाणिग्राही

    यह श्रावण की धार,

    वज्र, विद्युत्, झड़ी और दुर्दिन के सहित

    आर्तस्वर से संपूर्ण जग से मिलने को चाहती थी,

    प्यास से जलती, धधकती भूमि

    चाहती थी बदन पर अपने, सुशीतल प्राण की रस-धार।

    आलोक का नवीन प्रभात आह्वान करने को

    अनाहत अश्रु का आघात

    अँधेरे में घुमड़ता था।

    पल्लवित श्याम-क्षेत्र में

    अंकुरित कर हरा-भरा जब धान

    भूखों को खिलाने के लिए नीवार

    एक मन्वन्तर अभाव की व्यथा दूर करने के लिए

    भूमि और नभ-बीच, अखंड एकता आई है।

    दूरतम जड़ता में दृढ़तर प्रेम का स्पंदन

    जो चिरकाल से अच्छेद्य, नियम के ग्रंथि का बंधन,

    वही सृष्टि के उस प्रथम सत्य, सरल उपमा अलंकार

    ऐक्य, छंद,

    भेद-बाधाओं के ऊपर गुंजरित हो रहा है।

    मेघ के मिस जिस तरह आकाश

    दूर से - अति दूर से

    उतर आता है धरा पर,

    बात कहने के लिए स्वाधीनता की

    वैसे ही,

    कभी जो शून्य थी, वाष्प थी

    वही भारतवर्ष की स्वाधीनता

    अंत में उतर आई है पुरातन देश पर

    नव-वज्र विद्युत्-मंद्रित घनछाया चमकाकर।

    विचार या अविचार से धारा बहाकर रक्त की।

    श्रावण के जल समान,

    अंकुरित कर जीवनमय,

    क्षण में ही हट जाता है संघर्ष का मरण-आह्वान

    और बहा लाता है पुनर्जन्म शांति की स्निग्ध ऐक्य तान,

    जड़ प्रकृति के कण-कण में जो मिलन-गीत समाविष्ट

    क्या वह स्वाभाविक नहीं

    मनुष्य का मनुष्यों के साथ?

    कीट-पतंगों के राज्य में जो मिलन संभव होता है नित्य

    क्या उसे समझने में मानवों की शक्ति है असमर्थ?

    श्रावण की वाणी सहित

    स्वाधीनता आई है द्वार पर

    एकता की मिलन की वाणी वह, उसे नमन करता हूँ।

    जो त्याग और तपस्या है इस स्वाधीनता के साथ

    है जो रक्त की बाढ़, जो यंत्रणा का दावानल, जला है

    उसे संचित कर रखने के लिए,

    उसे अधिक उज्ज्वल करने के लिए

    उठा है मुक्ति का सूर्य

    हटता है दुःख का अंधकार।

    भिन्न-भिन्न देश में प्रकट हुआ है उसका रूप भिन्न-भिन्न मुद्रा में,

    अंत में वह

    आई है भारत में,

    गहन गिरि-सर-सरिता लाँघकर

    आई है भारत में।

    आओ हे देशवासी

    अग्रपंथी, उग्रपंथी, प्राचीन, नवीन,

    आओ सब, आज शुभ दिन है,

    आओ धनी, मानी, सर्वहारा मज़दूर, श्रमिक, बेकार

    साथ ही मिलकर फिर एक बार उसका मूल्य स्वीकार करो।

    अभी जो अनन्त-पथ बीहड़ है, जो बहुत-सा बाक़ी रहा है

    उसे गढ़ने को फिर से

    धैर्यशील शिल्पी आओ,

    राजनीति-दलबंदी है सिर्फ़ धोखा और निःसार

    एकता, स्वाधीनता और शांति का अर्थ एक है,

    भिन्न-भिन्न शब्द, एक अर्थ के ही द्योतक हैं,

    दूसरी रक्षा के लिए

    धैर्य, क्षमा और कठिनाई की ज़रूरत है

    पल में हट जाएगा संघर्ष का मरण-आह्वान

    काल के अंतिम इतिहास में

    विराजा करती है शांति ऐक्य तान।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 53)
    • रचनाकार : कालिन्दीचरण पाणिग्रही
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1956

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए