जलवायु न्याय बिना वर्ग-संघर्ष के कुछ नहीं, केवल बाग़वानी है।
—चिको मेंडेस
मैंने अख़बार में देखा था उसका चेहरा
थार के एक गाँव की वह स्त्री
अपनी माँ से बिछुड़े हिरण के बच्चे को
छाती से लगाकर दूध पिला रही थी
कुछ माह बाद
उस गाँव के क़रीब से गुज़रा तो
उसे देखने की चाह उसके घर ले गई
वह आँगन में बैठी
अनाज फटक रही थी
उसका बच्चा
हिरण के बच्चे के साथ खेल रहा था
मुझे देखकर आस-पड़ोस के लोग
साथ आकर बैठ गए
किसी ने कहा—
मिनख हो जानवर हो रूख बबूल ही क्यों न हों
सब उसी एक सिरजनहार की संतानें हैं
कोई बोला—किसी का दुःख-दरद बाँटना ही तो सच्ची सेवा है
और गुरुओं की वाणी यही तो कहती है।
उस स्त्री ने मुझसे कहा
कि मेरे एक नहीं दो दो बालक हैं
एक छाती से एक को
तो दूसरी से दूसरे को चिपकाए रहती हूँ
उसने बताया—
यह गुण उसे समाज से मिला है
और समाज उसके रक्त में बहता है।
वह बहुत सुंदर बोल बोल रही थी
और वह मुझे थार में बहती नदी-सी लग रही थी।
तभी दरवाज़े पर आया
एक और अनजान आदमी
लेकिन उसके चेहरे पर
इस देश में उसकी ‘जगह’ का नाम
बड़े साफ़ अक्षरों में छपा था।
उसने वहीं खड़े रहकर
माँगा—पानी
स्त्री खड़ी हुई
और बर्तन उठाकर उसे पानी पिलाने चली गई
वह नीचे बैठा
उसने ओक से
पानी पिया
और अपने
रस्ते चला गया
थोड़ी देर बाद
मैंने हाथ जोड़कर सबसे जाने की इजाज़त ली
मैं थोड़ी दूर ही पहुँचा था
कि मुझे एक आवाज़ सुनाई दी
वह किसी मटके के टूटने की आवाज़ थी
मुझे लगा जैसे किसी आदमी के टुकड़े हो गए हों!
- रचनाकार : बलराम कांवट
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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