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अभियान

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कल्पना मनोरमा

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और अधिककल्पना मनोरमा

    सोचती हूँ कभी-कभी

    काश! तुम झर-झरकर झर पाते

    पतझड़ में पत्तों सरीखे

    हम नहीं मिले टहनियों पर तो क्या!

    लुढ़कते-लुढ़कते

    कहीं ज़मीन पर मिल लेते

    जब तक आता वसंत

    उड़ लेते बेमतलब ही सही

    कुछ दूर ऊँची-नीची उड़ान

    लेकिन ये हो सका

    तुम लगे रहे फूल की जुगत में

    मैं बनी रही ठीक

    हरी पत्ती के नीचे

    तुम झुक सके

    मैंने आँख उठाई

    लेकिन कोई देख रहा था हमें

    हम सोचते ही रहे

    उसने धकेल दिया डाल से हमको

    फिर हम लुढ़कते रहे एक साथ

    इस तरह छोड़नी पड़ी

    अपनी-अपनी अकड़ हमें

    नए अभियान के लिए

    स्रोत :
    • रचनाकार : कल्पना मनोरमा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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