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अबाबील के प्रति

ababil ke prati

अनुवाद : यतेन्द्र कुमार

पर्सी बिश शेली

अन्य

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पर्सी बिश शेली

अबाबील के प्रति

पर्सी बिश शेली

और अधिकपर्सी बिश शेली

    (1)

    प्रमुदित प्राण! तुझे अभिवादन!

    कभी था तू खग निश्चय!

    नभ के या इसके समीप से,

    परस रहा संपूर्ण हृदय!

    पूर्व चिंतना-हीन कलामय, गीतावलि से भर अतिशय!

    (2)

    ऊँचे और बहुत ऊँचे चढ़,

    धरती से कुदान भर कर।

    अनल-मेघवत, अबाबील तू,

    चढ़ता नीलिम पंखों पर,

    उड़ने को चढ़ता तू गाता, गाता जब चढ़ता ऊपर!

    (3)

    अस्तोन्मुख होते दिनकर की,

    कनक झमक हो रही द्रवित।

    जिसके ऊपर उज्ज्वल बादल,

    तू तिरता होता धावित।

    ज्यों अशरीरी किसी सौख्य की दौड़ हुई हो आरंभित!

    (4)

    पीत अरुणिमा तव उड़ान के

    बही चतुर्दिक द्रव होकर,

    व्यापक दिवालोक में होता,

    ज्यों नक्षत्र नहीं गोचर,

    जैसे तू भी, पर सुनता मैं तेरे प्रखर उल्लसित स्वर!

    (5)

    ज्यों तीखे शर हैं उस, रजत—

    प्रभा-मंडल के पल-पल पर।

    जिसकी गहरी ज्योति क्षीण हो,

    गिरती शुभ्र उषांचल पर!

    जब तक नहीं अदृष्ट; सोचते हैं यह है गगनस्थल पर!

    (6)

    यह समस्त पृथिवी, व्योमांचल,

    गुंजित तेरे ही स्वर से।

    क्यों रजनी जब होती सूनी,

    तब एकाकी बादल से—

    शशि बरसाता किरन; निलय आप्लावित होता इस जल से!

    (7)

    तू क्या है हम नहीं जानते,

    है तुझसा क्या बहुत मृदुल?

    दिख सके इतने वे कन जो,

    बरसाता सुरधनु बादल!

    जितना चमकीला मृदुमथ तुझसे वर्षित गीतों का जल!

    (8)

    छिपा भाव-आलोक-लोक में,

    कोई कवि करता गुंजित,

    अनचाहे गीतों को अविरत,

    जब तक विश्व संवेदित—

    होता भय आशों के प्रति, थे पहले इससे जो, पेक्षित!

    (9)

    ज्यों कुलीन सुंदरी कुमारी,

    बैठी सौध-शिखर ऊपर

    प्रणयहित प्राणों को करती,

    अपने गुप्त क्षणों में तर।

    प्रिय-सा-मृदु संगीत बहाकर उमड़ा पड़ता कक्ष-सुघर।

    (10)

    तुहिन कनों की घाटी में ज्यों,

    कनकवर्ण जुगनू चंचल,

    बिखराता है रंग वायवी,

    तृण कुसुमों पर जो अविरल।

    जो ढक लेते उसे नज़र से फैला कर कोमल आँचल!

    (11)

    जैसे उस गुलाब के बनते,

    हरित पर्ण के कुञ्ज सघन!

    पीते सुरभि, ऊष्म पवनों से,

    तब तक झरते रहे सुमन,

    हुआ जब तक शुभ बोझिल-पर-द्युत-चोरों का मूर्छित मन।

    (12)

    उज्जवल हरित तृणावलियों पर,

    वासंतिक फुहार के स्वर।

    वर्षा-जागृत-कुसुमानन थे,

    सस्मित, स्वच्छ, सद्य, सुघर!

    सब कुछ सुंदर, पहुँच सकता, तव संगीत-स्तर तक पर!

    (13)

    सिखा इमें, हे आत्मा! या खग!

    क्या-क्या तेरे गीत मधुर?

    ऐसे प्रणय या कि मदिरा के

    कभी सुने प्रशंसा-स्वर

    जिनसे निःसृत हो, ऐसे दैविक मधु गीतों का निर्झर।

    (14)

    हों समवेत गान परिणय के,

    या हो जय की गीत लहर।

    पर तेरी तुलना में लगते,

    रिक्त-गर्व-द्युत फीके स्वर!

    ऐसी वस्तु अभाव किसी का कहती जो अपने भीतर!

    (15)

    पात्र कौन जिनसे बहता,

    तेरे सुख गीतों का निर्झर?

    कैसे खेते, लहर, समतल भू,

    कैसा नभ, औ' शैल-शिखर?

    कैसा प्रेम, और पीड़ा के अनजाने वे कैसे स्वर?

    (16)

    दुर्बलता झाँक सकती है,

    तेरे धवल-हास-पट पर,

    और रोष की छाया तेरे,

    सफती निकट पलभर!

    तुम करते हो प्यार, प्यार का दुःख तुम्हें छूता है पर!

    (17)

    जगते था सोते आता हो,

    ध्यान मृत्यु का भी पल भर!

    वस्तु और सच गहरी तुझको,

    जान सकें जिन्हें नश्वर,

    वर्ना इतना स्फटिक स्वच्छ, संगीत-स्रोत होता क्योंकर?

    (18)

    गत आगत को लखते खोते,

    व्यर्थ लालसाओं में तन।

    और हमारे हास्य सत्यतम

    में भी घुले वेदना-कन।

    मृदुतम गीत वही निज जिनसे अति दु:ख-भावों का व्यंजन।

    (19 )

    तो भी यदि भय, घृणा, गर्व का,

    कर सकते अवहेलन ही।

    होते वस्तु, जनमती हैं जो,

    ढुलकाने को अश्रु नहीं,

    तो क्या हम तेरे प्रमोद के सकते थे पास कहीं?

    (20)

    श्रेष्ठ साधनों से जिनसे,

    उठते हैं हर्षदायक स्वर।

    पुस्तक के पन्नों पर अंकित,

    उन कोषों से भी बढ़ कर,

    दे वसुधा के अवहेलक! कवि को तेरा ही गुण प्रियतर!

    (21)

    सिखा मुझे भी दे आधा,

    उल्लास बुद्धि तेरी परिचित।

    ऐसी नियमित मादकता,

    कवि अधरों से होगी निःसृत।

    ज्यों अब मैं सुनता उनको भी सुन लेगी यह संसृति।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शेली (पृष्ठ 10)
    • संपादक : यतेन्द्र कुमार
    • रचनाकार : पर्सी बिश शेली
    • प्रकाशन : भारत प्रकाशन मंदिर, अलीगढ़

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