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प्यारा सिंह सहराई

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और अधिकप्यारा सिंह सहराई

    एक-एक करके मानवीय संबंध सारे बह गए

    मर गया अपनत्व, आत्मा के शिवालय ढह गए

    उड़ गई है पंख पहने भद्रता, छाई बदी

    हूँ-हूँ करते घूमते चहुँ ओर आज वे सभी

    चोट खाते, मसले जाते, रौंदते पौधे नए

    कहीं कोई लता, कोई फूल चहकता

    नंगे पेड़ों पर तो डायन या चुड़ैलें मस्त हैं

    सभी तत्पर हैं यहाँ कि खाएँ मनुज जाति को

    राजगद्दी पर हैं बैठे लोग ये पाताल के

    आदमी का माँस ही है ऐसे साँपों की ख़ुराक

    बिच्छू, विषधर, साँप सारे डंक मारें देश को

    इस उभरते जहर का क्या हश्र हो सकता हबीब।

    किधर जाऊँ देखकर हिलती है रूह मेरी यहाँ

    क्या यही दिन देखने को उम्र बाक़ी थी यहाँ

    बेबसी लाचारी से पीछा छुड़ाऊँ किस तरह

    इन सभी नागों का मार्ग कहो कैसे रोक लूँ?

    गंदगी लड़ती जहाँ पावनता के सामने

    प्यार का सागर कहीं नज़र क्यों मिला रहा

    मदर टेरेसा-सी ममतामय कोई मूरत दिखे

    फिर कहीं शुभलक्ष्मी आकर के यहाँ साकार हो

    क्या कहीं बहुगुणजनों को लोकहित चाहिए यहाँ

    हर इक गली में, हर नगर या फिर हर गाँव में

    झूठ है नेता यहाँ, भूतों के भंगड़े हों जहाँ

    हर सुबह बेटी यहाँ निज पिता से होती ज़िबह

    हर घड़ी माँ बेचती कोई सुता बाज़ार में

    देखता हूँ, हर कोई मंडी में आँसू बेचता

    हो भले इंजीनियर या डॉक्टर या कवि

    सत्यवादी शब्द हो गए, आज सब मंडी का माल

    ग्रंथ की वाणी बिकी और ईसा के प्रवचन भी

    सीता का सतीत्व बिकता, राम-रावण एक हैं

    किसकी दहलीज़ों पे जाके हम झुकाएँ सिर कहो

    हर पुजारी माँगता पाकीज़गी अब दान में

    माल बिकता लूट का, गज लाठियों के हो रहे

    क्या गुरु का द्वार क्या मंदिर क्या मस्जिद यहाँ

    पूजा पूँजी की है होती, धन्य पीर और हैं गुरु

    लूटने वाले हैं नेता, वनिक सब क़ातिल हुए

    सभी के रंग लाल हैं और हो रहे हैं बग़लगीर।

    इतना निर्बल सत्य पहले तो कभी देखा था

    कभी इतिहास ने इस तरह देखी नेक नीयत

    ठीक निर्बल सत्य है, पर इतना निर्बल भी नहीं

    ठीक कच्ची है मुहब्बत पर नहीं कमज़ोर इतनी

    जड़ें गहरी हैं, यहाँ बुनियाद पक्की बहुत है

    झूठ की नींव कोई जड़हीन है बिस्तर यहाँ

    सत्य की आँखों में आँखें डाल देखा जाए

    छोटे-छोटे सत्य इक दूजे की ख़ातिर सरकते

    नई किरणें ज़ुड़ेंगी सूरज बनाएँगी नया

    फिर किसी गोबिंद, नानक, बुद्ध का होगा जन्म

    कोई ईसा फिर से निर्धन के लिए चूमे सलीब

    सभी की यह सोच बन जाती है आख़िर नई भोर

    इतनी कालिमा, सोया लावा जागता जब कोख से।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 62)
    • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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