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आख़िरी बार

akhiri bar

राही डूमरचीर

अन्य

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राही डूमरचीर

आख़िरी बार

राही डूमरचीर

और अधिकराही डूमरचीर

     

    एक

    घर थमा हुआ-सा लगता है
    वापस लौटने पर

    बिखरी हुई चीज़ों के साथ
    बटोरना पड़ता है ख़ुद को

    तुम्हारी दी हुई एक घड़ी ही है
    जो कभी नहीं रुकती

    टिक-टिक करती
    हमेशा आगे बढ़ती दिखती है

    तुम आगे बढ़ गई हो
    तुम तुम्हारी दी हुई घड़ी हो गई हो

    दो

    पिता प्रवासी थे धनबाद में
    गाँव वापस लौट आए,
    मेरे पैदा होने के बाद

    फिर
    नदियाँ धमनियाँ बन गईं
    जंगल साँसों की हरियाली
    और पहाड़ चिर सखा

    फिर क्या जाता धनबाद

    आज इसी शहर के
    स्टेशन से
    विदा ली तुमने आख़िरी बार

    अब क्या ही जाऊँगा धनबाद

    तीन

    नहीं मिलना था,
    पर मिल ही गए
    फिर से राँची में

    नहीं देखना था,
    पर देखा
    साथ-साथ प्रपात

    नहीं जाना था,
    पर गए
    पत्थलगड़ी वाले
    ख़ूबसूरत गाँवों में

    साँसें इतनी हरी थीं
    शाल की छाँव में
    कि समझ ही नहीं पाया
    रास्ते भटक रहे थे
    जंगल-जंगल
    या हम

    राँची से
    ट्रेन दुमका जा रही थी
    शायद
    इस बार मैं जा रहा था
    आख़िरी बार

    चार

    साथ-साथ
    देखा था बहते
    तुम्हारे
    कोयल-कारो को

    फिर भी
    तुम्हें बेहद पसंद थी
    मेरे गाँव की बाँसलोई

    किनारे बैठा
    पसंदीदा चट्टान पे
    बाँसलोई को देख रहा हूँ
    मौज से बहते

    कैसा नासमझ था
    तुम्हें तो होना ही था नदी
    और मैं चला था बाँधने

    स्रोत :
    • रचनाकार : राही डूमरचीर
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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