किसी राज्य में, किसी देश में
किसी अजाने से प्रदेश में,
ज़ार ददोन राज करता था
जिससे हर राजा डरता था,
बड़ा भयंकर था यौवन में
बड़ा सूरमा रण-आँगन में,
बड़े मोर्चे उसने मारे
उससे लड़ सब दुश्मन हारे।
वक़्त बुढ़ापे का जब आया
मिले चैन, यह दिल ने चाहा,
किंतु तभी तो आस-पास के
राजा दुश्मन जो हताश थे,
हर दिन उसको लगे सताने
अपनी ताक़त, अकड़ दिखाने।
सीमाओं की रक्षा के हित
सेना दौड़ानी पड़ती नित,
सेना-नायक ज़ोर लगाते
फिर भी दुश्मन बाज़ न आते,
लगता रिपु दक्षिण से आए
वह पूरब से फ़ौज बढ़ाए!
यहाँ अगर वह मुँह की खाता
तो नौसेना ले चढ़ आता,
ज़ार ददोन दु:खी हो रोता
और नींद भी अपनी खोता,
लानत है, यह भी क्या जीना
हर दिन घूँट ज़हर के पीना।
एक उपाय ध्यान में आया
तुरत नजूमी को बुलवाया,
वह था ज्ञानी, ज्ञान बहुत था
समझदार, विद्वान बहुत था।
उसने अपना थैला खोला
दाएँ-बाएँ उसे टटोला
मुर्ग़ निकाला स्वर्ण-सुनहरा
और कहा—“यह देगा पहरा,
इसको ऊँची सी सलाख़ पर
कहीं बिठा दो ऊँचाई पर,
शांत रहेगा सब कुछ जब तक
मौन रहेगा यह भी तब तक,
ख़तरा नज़र अगर आएगा
शत्रु निकट यदि मँडराएगा,
देखेगा सेनाएँ बढ़तीं
तेरी सीमाओं पर चढ़तीं,
तत्क्षण वह कलग़ी सीधी कर
चिल्लाएगा ज़ोर लगाकर,
ख़ूब ज़ोर से पंख हिलाए
ख़ुद वह घूम उधर ही जाए।”
ज़ार हुआ बेहद आभारी
कहा—“कृपा यह बड़ी तुम्हारी,
मालामाल तुम्हें कर दूँगा
यह एहसान नहीं भूलूँगा,
मुँह माँगा इनाम पाओगे
वह ही दूँगा, जो चाहोगे।”
सोने का मुर्ग़ा सलाख़ पर
बैठा, पहरा देता डटकर,
ख़तरा नज़र कहीं जो आता
सजग उसी क्षण वह हो जाता,
हिलता-डुलता, पंख हिलाता
ख़ुद भी घूम उधर ही जाता,
ऊँचे कुकडूँ-कूँ चिल्लाता
ख़तरा है, वह यह बतलाता।
ज़ार मज़े से अब सोता था
वह बेचैन नहीं होता था,
शांत पड़ोसी दुश्मन सारे
वे क्या करते अब बेचारे,
किया ज़ार ने ऐसा हीला
हुआ सभी का कस-बल ढीला।
साल दूसरा बीता जाए
कभी न मुर्ग़ा शोर मचाए,
किंतु अचानक शोर मचा जो
गया जगाया तभी ज़ार को—
“ज़ार उठो तुम पिता हमारे!
सेनापति यह अर्ज गुज़ारे,
“जागो, जागो, पिता दुहाई
कोई बड़ी मुसीबत आई।”
“क्या है, कौन मुसीबत आई?
पूछे वह लेता जम्हाई।
सेनापति उसको बतलाए—
जी, हुज़ूर मुर्ग़ा चिल्लाए,
सभी जगह दहशत, डर छाया”
ज़ार निकट खिड़की के आया,
देखा—मुर्ग़ा पंख हिलाए
वह पूरब की राह दिखाए,
जल्दी करो न देर लगाओ
झटपट घोड़ों पर चढ़ जाओ।”
भारी सेना दे बेटे को
पूरब में भेजा जेठे को,
मुर्ग़ा फिर से शांत हो गया
नगर स्तब्ध औ' ज़ार सो गया।
गए बीत इस तरह आठ दिन
ख़बर न कोई, भारी पल, छिन,
हुई कहीं पर झड़प, लड़ाई
नहीं सूचना कोई आई,
पर मुर्ग़ा फिर से चिल्लाए
ज़ार और सेना भिजवाए,
भेजा अब छोटे बेटे को
ताकि मदद दे वह जेठे को।
मुर्ग़ा शांत हो गया फिर से
मगर न आई ख़बर उधर से।
आठ दिवस यों बीते फिर से
बुरा हाल लोगों का डर से,
मुर्ग़ा फिर से शोर मचाए
ज़ार स्वयं ले सेना जाए,
पूरब में थी उसकी मंज़िल
क्या बीतेगी, डरता था दिल।
चले रात को दिन को लशकर
सैनिक चूर हुए सब थककर,
कहीं न कोई लड़ा मरा था
नहीं किसी का ख़ून गिरा था,
दिया न कहीं पड़ाव दिखाई
क़ब्र एक भी नज़र न आई,
सोचे ज़ार और घबराए
नहीं समझ में कुछ भी आए,
यह था सचमुच अजब तमाशा
कभी न की थी जिसकी आशा।
दिवस आठवाँ डूबे दिनकर
सेना तब पहुँची पर्वत पर,
घाटी में चंदवा रेशम का
दिखा ज़ार को, यह क़िस्सा क्या?
सभी ओर अद्भुत सुंदरता
गहरा सन्नाटा, नीरवता,
सेना सारी कटी पड़ी थी
यह क्या घटना यहाँ घटी थी?
जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ाए
ज़ार निकट चंदवे के जाए,
और वहाँ पर उसे अचानक
दिया दिखाई दृश्य भयानक,
दोनों बेटे मरे पड़े थे
तन में बरछे तेज़ गड़े थे,
भाई ने भाई को मारा
एक-दूसरे का हत्यारा।
उनके घोड़े वहीं पास में
घूमें रौंदी हुई घास में...
रोये, आँसू ज़ार बहाए—
“बेटो! तुम किस छल में आए,
खेत रहे, तुम वीर-बाँकुरे
आया मेरा अंत समय रे!
लोग सभी उसके संग रोएँ
दामन अपने सभी भिगोएँ,
आह भरे पर्वत, घाटी भी
रक्त सनी उसकी माटी भी,
परदा चंदवे का अति झीना
उठा अचानक और हसीना,
शमाख़ान की वह शहज़ादी
निकली, अरुण उषा मुस्का दी,
जैसे रात्रि-विहग दिनकर को
देख मौन होता क्षण भर को,
वैसे ही चुप ज़ार हो गया
रूप-छटा में मुग्ध खो गया।
वह बेटों की मृत्यु-व्यथा की
भूल गया यह करुण-कथा भी।
शीश झुका रानी मुस्काकर
बहुत पास ज़ार के आकर,
थाम ज़ार का हाथ, हाथ में
चदवें में ले गई साथ में,
आदर से उसको बिठलाया
ख़ूब खिलाया, ख़ूब पिलाया,
ज़रीदार बिस्तर लगवाया
करने को आराम लिटाया।
इसी तरह से यों हफ़्ते भर
वह मानो जादू में बँधकर,
मस्त रहा, वह मौज मनाता
और ख़ुशी में वक़्त बिताता।
वक़्त लौटने का तब आया
औ' चलने का हुक्म सुनाया,
संग लिए शहज़ादी सुंदर
ज़ार चला वापिस अपने घर।
उसके आगे, पर अफ़वाहें
झूठी सच्ची उड़ती जाएँ,
बड़ी भीड़ ने नगर-द्वार पर
स्वागत किया, दिखाया आदर,
ज़ार, हसीना थे जिस रथ में
लोग पिसे जाएँ उस पथ में,
ज़ार करे सब का अभिवादन
बहुत उल्लसित था उसका मन,
नज़र सफ़ेद पगड़ी तब आई
और भीड़ में दिया दिखाई
उसे नजूमी परिचित सहसा
जो लगता था श्वेत हंस सा,
“मैं अभिवादन करूँ तुम्हारा
तुमने ही तो मुझे उबारा,
आओ निकट हाल बतलाओ
बोलो, क्या तुम मुझसे चाहो?
“याद तुम्हें जो वचन दिया था?
वादा मुझसे कभी किया था?
'जो चाहोगे, वह ही दूँगा
पूरा अपना क़ौल करूँगा।’
दो शहज़ादी यह ज़ारीना
लाए हो जो साथ हसीना।”
यह सुन ज़ार बहुत चकराया
वह तो बस सकते में आया,
क्या कहते हो? बुद्धि बिसारी
नहीं ठिकाने अक़्ल तुम्हारी,
सिर सवार शैतान तुम्हारे
बात कर रहे बिना विचारे,
वचन दिया, यह मैंने माना
किंतु न तुमने इतना जाना,
तुम किसके यों मुँह लगते हो?
किससे यों बातें करते हो?
हूँ मैं ज़ार, न इसे भुलाओ
मत सीमा से बाहर जाओ।
लो धन-दौलत, ऊँची पदवी
चाहे शाही, घोड़ा अरबी,
राज तुम्हें आधा दूँ, चाहो
शहज़ादी की बात भुलाओ।”
“मुझे चाहिए सिर्फ़ हसीना
यह शहज़ादी, यह ज़ारीना।”
ज़ार बहुत ग़ुस्से में आया
थूका उसने औ' चिल्लाया—
“यही ज़िद्द, भाड़ में जाओ
और न कुछ भी मुझसे पाओ,
भागो, अपनी जान बचाओ
इस बुड्ढे को दूर हटाओ!”
बहस करे, बूढ़े ने चाहा
ज़ार और भी तब झल्लाया,
लोहे का भुज-दंड उठाकर
दे मारा बुड्ढे के सिर पर,
बुड्ढा तो बस वहीं गिर गया
प्राण पखेरू दूर उड़ गया।
भीड़ सहम, काँपी थर्राई
हँसी हसीना को, पर आई,
हा-हा-हा-हा-ही-ही-ही-ही
उसे न कुछ भी शर्म-हया थी,
परेशान था ज़ार बहुत ही
किसी तरह मुस्काया फिर भी,
बढ़ा नगर को अब रथ सत्वर
हुई इसी क्षण हल्की सरसर,
देखें सब ही नज़र जमाए
मुर्ग़ा नीचे उड़ता आए,
आया, और ज़ार चंदिया पर
बैठ गया वह पाँव जमाकर,
ठोंग मारकर पंख हिलाए
कहाँ गया वह, कौन बताए?
रथ से नीचे ज़ार गिर गया
आह भरी बस, और मर गया।
लुप्त हुई शहज़ादी ऐसे
था उसका अस्तित्व न जैसे।
क़िस्सा झूठा, गढ़ा गया है
फिर भी इसमें सत्य बड़ा है!
- पुस्तक : अलेक्सान्द्र पूश्किन चुनी हुई रचनाएँ (खंड-1) (पृष्ठ 102)
- रचनाकार : अलेक्सान्द्र पूश्किन
- प्रकाशन : प्रगति प्रकाशन, मास्को
- संस्करण : 1982
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.