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कल्लू बढ़ई

kallu baDhii

औरंगाबाद ज़िले के बराही नामक गाँव में एक ग़रीब कल्लू बढ़ई रहता था। वह रोज़ जंगल जाता और लकड़ियाँ काट लाता था। लकड़ियों को बेचकर वह अपने परिवार का भरण-पोषण करता था। यूँ तो लकड़ियाँ बिक ही जाती थीं रोज़। पर एक समय ऐसा आया कि लगातार कई दिनों तक बारिश होती रही। तेज़ बारिश के कारण कल्लू कई दिनों तक लकड़ी लाने जंगल जा सका। पास में जो कुछ लकड़ियाँ बची थीं वह भी बारिश में भीगकर गीली हो गई थीं। बेचारे ग़रीब बढ़ई का घर इतना छोटा था कि वह लकड़ियाँ अंदर रख भी नहीं सकता था, और कोई उसे ख़रीदता भी नहीं था क्योंकि गीली लकड़ियाँ जलती भी नहीं और धुआँ भी अधिक देती हैं। भला ऐसे में कोई क्यों ख़रीदता उन्हें?

बेचारे कल्लू की परेशानी बढ़ती जा रही थी। कई दिनों तक लकड़ियाँ नहीं बिकीं और अब भूखे रहने की नौबत गई। ऐसी हालत में उसकी जनानी बोली, “अब तोहरा कुछ-न-कुछ तो करही पड़तव। हमर बेटा-बेटी के भूखे रहल अब तक पाँच दिन हो गेल।”

कल्लू बढ़ई ने बहुत कोशिश की पर तो पास-पड़ोस और दूर के ही किसी रिश्तेदार ने उसे उधार दिया। वह रुआँसा होकर मुँह लटकाए यही सोचते हुए घर लौट रहा था। उसके मन में यही बातें चल रही थीं कि घर पहुँचते ही जब बच्चे पूछेंगे, “बाबूजी कुछ खायला लैल कि न, तो वह क्या जवाब देगा?”

अचानक उसकी नज़र एक छोटे होटल पर पड़ी। लोग वहाँ गर्मा-गर्म रोटियाँ खा रहे थे। रोटी की महक से उसकी भूख बढ़ गई। वह बिना किसी परिणाम की चिंता किए कई रोटियाँ एक साथ उठाकर भाग खड़ा हुआ। ‘चोर-चोर’ चिल्लाकर सभी उसके पीछे भागने लगे। आख़िरकार वह पकड़ा गया। लोगों ने उसकी ख़ूब पिटाई की। उसकी सभी रोटियाँ गिरकर गीली मिट्टी में सन गई थीं। कल्लू को राजा के सामने पेश किया गया।

जब राजा को पता चला कि एक बढ़ई रोटी चुराने के इल्ज़ाम में पकड़ा गया है तो वह बोला, “इसमें कोई दो राय नहीं है कि चोरी करना महापाप है। इस पाप की सज़ा उसे ज़रूर मिलेगी।” कल्लू बढ़ई ने डरते-डरते अपनी सफ़ाई में बोला, “हुज़ूर पिछले पाँच दिनों से मेरे बच्चे भूख से व्याकुल हो रहे हैं। मुझसे उनकी हालत नहीं देखी गई। बहुत लोगों से उधार माँगा पर किसी ने नहीं दिया। थक-हारकर मुझे चोरी करनी पड़ी और इसी में पकड़ा गया। मैं सज़ा भुगतने को तैयार हूँ पर मेरे बच्चों को खाना भिजवा दो, नहीं तो उनकी जान चली जाएगी।”

राजा कल्लू की बात सुनकर बहुत भावुक हो गया। उसने बोला, “सज़ा तो मिलेगी और ज़रूर मिलेगी मगर कल्लू को नहीं, मुझे। राजा के लिए उसकी प्रजा संतान की तरह होती है और जिसकी संतान भूखी हो, जिसकी प्रजा सुखी हो, इसका साफ़ मतलब है कि वह राजा अपना राजधर्म नहीं निभा रहा है। मेरे राज्य में यदि किसी को अपने बच्चों की भूख मिटाने की ख़ातिर रोटी चोरी करनी पड़े तो इससे ज़्यादा शर्म की बात और क्या हो सकती है भला।” बात सच भी है कि एक राज्य में राजा से उम्मीद तो की ही जानी चाहिए, विशेषकर तब जब बात राजा तक पहुँच जाए। राजा ने तत्काल मंत्री को आदेश दिया कि कल्लू को राजदरबार में नौकरी पर रख लिया जाए और उसके बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ खाने-पीने की भी समुचित व्यवस्था की जाए। उसके बाद से कल्लू बढ़ई की ज़िंदगी बदल गई।

स्रोत :
  • पुस्तक : बिहार की लोककथाएँ (पृष्ठ 3)
  • संपादक : रणविजय राव
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2019

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