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मामा-भांजा गौर

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एक गाँव में पारदी जाति का एक व्यक्ति और उसकी पत्नी रहते थे। वे बड़े ही आनंदपूर्वक जीवन-यापन कर रहे थे।

तब एक दिन पारदी ने अपनी पत्नी से कहा,ऐ जी! तुम मेरे लिए भूख-लड्डू और सोस-लहू बना दो। मैं कल आखेट के लिए जाऊँगा।

उसके ऐसा कहने पर उसकी पत्नी ने उस रात भूख-लड्डू और प्यास-लड्डू बना दिए। रात हुई तो वे खा-पी कर सो गए। सवेरा होने पर उसकी पत्नी ने सारी सामग्री एक कपड़े में बाँध दी। पारदी भोजन कर तैयार हो गया। अपनी सारी सामग्री और भोजन की गठरी लेकर वह जंगल की ओर चल पड़ा।

वह चलता चला गया। कई कोस चलने पर साँझ हो गई। साँझ होने पर वह आश्रय पाने की चिंता में पड़ गया।'क्या करूँ,कहाँ जाऊँ इस महा गहन वन में?'वह सोचने लगा। तभी अनायास उसकी दृष्टि एक कुटिया पर पड़ी। वह कुटिया थी रुसइन डोकरी की। उसके घर के आगे थी भुरभुसी नामक डोंगरी। उस डोंगरी में रहते थे मामा और भांजा गौर। यह डोकरी उन गौरों की रखवाली किया करती थी।

पारदी उसी भुरभुसी डोंगरी में रहने वाले मामा-भांजा गौरों के आखेट के लिए गया हुआ था। पारदी जैसे ही बुढ़िया की कुटिया के पास पहुँचा, बुढ़िया उससे कहने लगी,मैं तुम्हारी मौसी हूँ,बाबू। मुझे नहीं पहचाना,तुमने? भला कैसे पहचानोगे! तुम तो छोटे-से थे। ऐसा कह डोकरी ने उसकी ख़ातिरदारी की। बड़े ही प्यार के साथ भोजन पकाया और उसे खिला कर सोने के लिए जगह भी दी। पारदी के सोने के पहले उसने उसकी सारी सामग्री भीतर ले जाकर रख दी। पारदी दिन भर का थका-हारा तो था ही,खाते ही उसे नींद गई। पारदी के सो जाने पर डोकरी ने उसके धनुष और तीर को कुतर-कुतर कर खोखला कर दिया। इस तरह रात बीती और सुबह हुई। सुबह होने पर बुढ़िया ने झटपट उठकर पारदी के लिए भोजन तैयार किया और उसे खिला-पिला कर विदा कर दिया। पारदी अपना सामान लेकर चल पड़ा। चलते-चलते वह भुरभुसी डोंगरी में जा पहुँचा वहाँ मामा-भांजा गौर घने चारागाह में चारा चर रहे थे। पारदी के देखने से पहले ही भांजा गौर ने उसे देख लिया। उसे देख कर भांजा गौर मामा गौर से कहने लगा :

भाग चलें भाग चलें मामा भुरभुसी डोंगरी

नाहर लड़का है मामा पहुँच गया है।

घुटने भर चारा है मामा,

थूथन डूबे तक पानी।

हवादार पीपल है मामा,

ठंडी-ठंडी छांव है।

तब मामा गौर ने कहा :

भागें भागें भांजा भुरभुसी डोंगरी

घुटने भर चारा है भांजे

थूथन डूबे तक पानी।

हवादार पीपल है भांजे

ठंडी-ठंडी छाँव है।

दाहिने सींग में मारूंगा भांजे,

बायें सींग में रखूँगा।

बारह-बारह चौबीस वर्षों तक भांजे

मैं उसे सुखाऊँगा।

ऐसा कहते हुए पारदी ने धनुष पर तीर चढ़ाया। प्रत्यंचा खींच कर तीर छोड़ने को ही था कि धनुष टूट गया। जैसे ही धनुष टूटा,मामा गौर पारदी के पास आया और अपने दाहिने सींग से उसे मार कर बाँए सींग पर रख लिया। पारदी का शव बारह वर्षों तक उसी सींग पर सूखता रहा।

इधर पारदी की पत्नी पेट से थी। पारदी के जाते ही उसका प्रसव हुआ। उसने एक लड़के को जन्म दिया। लड़का देवताओं तथा राजकुमारों की तरह बढ़ने लगा। बड़ा होने पर वह मोहल्ले के अन्य लड़कों के साथ बाटी-भौंरा खेलने लगा। वह उन खेलों में सदैव जीत जाता। जीतने पर उसके साथी उसे 'बिना बाप का' कह कर चिढ़ाने लगते। लड़का कई दिनों तक चुपचाप सुनता रहा। फिर सहन कर एक दिन अपनी माता से पूछने लगा,माँ,तुम मुझे आज बता ही दो। मेरे पिता कहाँ गए? उसने ज़िद पकड़ ली। तब उसकी माता क्या करती भला! उसे बताना ही पड़ा। बोली,तुम्हारे पिता आज से बारह वर्ष पहले मामा-भांजा गौर को मारने भुरभुसी नामक पहाड़ी पर गए हैं। वे वहाँ से अब तक नहीं लौटे। पता नहीं वे उन गौरों को खोज रहे हैं या कि उन गौरों ने उन्हें मार डाला है! कहती हुई माता रोने लगी।

तब लड़के ने सुना और लोहार के पास जाकर उससे चौबिस घाना को धनुष और चौबिस घाना का तीर बनाने को कहा। घर वापस आया और माता से कहा,माँ,मैं बाबा को खोजने जा रहा हूँ। तुम मेरे लिए सुख-लड्डू-भूख-लड्डू बना दो। उसके ऐसा कहने पर माता ने कहा,नहीं बेटा, तुम मत जाओ। तुम मेरे एक ही बेटे हो। मेरे एक बेटे के अलावा कोई दूसरा नहीं है। जैसे एक आँख वाले की वही एक आँख सब-कुछ होती है वैसे ही तुम भी मेरे लिए सब-कुछ हो। नहीं,मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगी। लड़के ने कहा, तुम मेरे लिए चिंता मत करो,माता। मैं गौरौं को मार कर बाबा को घर वापस लाऊँगा। ऐसा कहते हुए वह अपनी माता को समझा-बुझा कर जाने को तैयार हो गया। तब रात में माता ने उसके लिए सुख और भूख के लड्डू बना दिए। सवेरा होने पर लड़का अपने साजो-सामान लेकर भुरभुसी डोंगरी की ओर चल पड़ा। जाते-जाते उसे भी उसी रुसइन बुढ़िया के घर के पास साँझ हो गई। साँझ होने पर वह भी उस भयावह जंगल के बीच में स्थित रुसइन बुढ़िया के घर में गया। वहाँ जाने पर उस बुढ़िया ने उसके पिता की ही तरह उसका भी सम्मान किया। उसके साजो-सामान ले जाकर भीतर रख आई। भोजन तैयार किया और लड़के को खिला-पिला कर सोने को जगह दी। लड़के के सोते ही वह उसके धनुष और तीर को कुतरने लगी। किंतु कैसे कुतरती भला! तीर और धनुष तो लोहे के बने थे। वह उन्हें कुतर-कुतर कर थक गई। सवेरा होने तक उसने कुतरने का प्रयास किया किंतु कुतर सकी उल्टे उसके दाँत झड़ गए। सवेरा होने पर लड़का अपने साजो-सामान लेकर भुरभुसी डोंगरी की ओर चल पड़ा। चलते-चलते वह भुरभुसी पहाड़ी पहुँच गया। देखा तो मामा-भाचा गौर घुटने तक बढ़ आई घास के बीच चारा चर रहे थे।

भांजे गौर ने लड़के को देखा और मामा गौर से कहने लगा :

भाग चलें, भाग चलें,मामा भुरभुसी डोंगरी

नाहर लड़का है मामा,पहुँच गया है।

घुटने भर चारा है मामा,

थूथन डूबे तक पानी।

हवादार पीपल है मामा,

ठंडी-ठंडी छाँव है।

यह सुन कर मामा गौर कहने लगा :

भागें, भागें, भांजे भुरभुसी डोंगरी

घुटने भर चारा है भांजे

थूथन डूबे तक पानी।

हवादार पीपल है भांजे

ठंडी-ठंडी छांव है।

दाहिने सींग में मारूँगा भांजे,

बांयें सींग में रखूँगा।

बारह-बारह चौबीस वर्षों तक भांजे

मैं उसे सुखाऊँगा।

उधर लड़के ने तीर साधा हुआ था। जैसे ही मामा गौर ने अपना यह कथन समाप्त किया, लड़के ने तीर छोड़ दिया। तीर मामा गौर की छाती चीरते हुए कलेजे तक जा पहुँचा तीर लगते ही मामा गौर गिर कर मर गया। अब भांजा गौर क्या करे! वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो इधर-उधर ताक ही रहा था कि लड़के ने उसे भी तीर से बींध दिया,वह भी मर गया। तब लड़का उन मृत गौरौं के पास गया। देखा,उसके पिता का शव मामा गौर के सींग में सूख कर लटका हुआ था। लड़के ने उसे देख कर विचार किया कि हो हो, यही मेरे पिता का शव है और यहीं वे मामा-भांजा गौर हैं। ऐसा सोच कर वह लड़का अपने पिता के शव को गोद में लेकर विलाप करने लगा। उसका रुदन सुन कर तीनों लोकों के स्वामी महादेव माया रूप लेकर लड़के के सामने प्रगट हुए और पूछने लगे,क्यों बालक! तुम क्यों रो रहे हो? उनकी बात सुन कर लड़के ने सारा वृत्तांत कह सुनाया। सुन कर महादेव ने कहा,तुम थोड़ी देर अपनी आँखें मूँद लो। लड़के ने अपनी आँखें मूँद लीं। महादेव ने पारदी को जीवित कर दिया और स्वयं वहाँ से अदृश्य हो गए। जीवित होने पर पारदी 'हे राम!' कहता उठ बैठा और कहने लगा, मैं बहुत देर तक सोता रह गया था,शायद! तब उसके पुत्र ने कहा,तुम सोए कहाँ थे,बाबा! तुम्हें तो इन गौरों ने मार कर तुम्हारे शव को बारह वर्षों तक अपने सींग पर सुखाया था। ऐसा कहते हुए लड़के ने उन गौरों की ओर इशारा किया। तब दोनों पिता-पुत्र आपस में मिले। पिता ने बेटे को चूमा। फिर दोनों ने मिल कर गौरों की छाल निकाली और मांस लेकर घर चले। रास्ते में रुसइन बुढ़िया को भी थोड़ा-सा मांस दिया और ख़ुशी-ख़ुशी घर पहुँचे। घर आने पर पारदी की पत्नी ने दोनों पिता-पुत्र की अगवानी की। इस तरह वे सपरिवार आनंदपूर्वक जीवन यापन करने लगे।

मेरी कहानी समाप्त हुई।

स्रोत :
  • पुस्तक : बस्तर की लोक कथाएँ (पृष्ठ 18)
  • संपादक : लाला जगदलपुरी, हरिहर वैष्णव
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2013

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