Font by Mehr Nastaliq Web

बकरे की अक़्ल

अन्य

अन्य

एक गाँव में एक बुढ़िया रहती थी। उसके घर में एक बकरा था। बकरे की थी लंबी दाढ़ी। बकरा तो बकरा! रोज़ जंगल में चारा चरने जाया करता था। एक दिन चरते-चरते जंगल में काफ़ी दूर निकल गया। चारा अच्छा दिखता गया,वह आगे बढ़ता गया। सुबह का निकला दोपहर हो गई,शाम होने को आई। तभी ज़ोर की आँधी चलने लगी और बड़ी ज़ोरों से बारिश शुरु हो गई। बकरे को अब घर लौटने की चिंता हुई। किंतु अँधेरा बढ़ता जा रहा था,आँधी चल रही थी और बारिश तेज़ हो रही थी। मारे डर के बकरा यहाँ-वहाँ छुपने की जगह तलाश करने लगा। इतने में उसे एक गुफ़ा दिखलाई पड़ी। डूबते को तिनके का सहारा मिला। बकरा घुस पड़ा उसी गुफ़ा में और बैठ कर जुगाली करने लगा। यह गुफ़ा थी एक बाघ की। थोड़ी ही देर में बाघ पहुँचा मुहाने से ही देखा,लंबी दाढ़ी वाला कोई जानवर गुफ़ा के भीतर बड़े आराम से बैठा जुगाली कर रहा है। बाघ यह देख कर डर गया। हिम्मत हुई आगे बढ़ने की। उधर बाघ को देख कर बकरे की भी घिग्घी बँध गई। काटो तो ख़ून नहीं। अंततः बाघ ने पूछ ही लिया,लंबे-लंबे दाढ़ी मुँह भाकुर,क्या-क्या फल खाए हो वन के ठाकुर?

इससे बकरा और ज़्यादा डर गया। सोचा,बस! अब तो गई अंतिम घड़ी। डरते-डरते बोला,ऐंठ कर खाया बैठ कर खाया खाया जगह पचास,अब तो पहाड़ी के बाघ के लिए पड़ा हूँ उपवास।

यह सुन कर बाघ के छक्के छूट गए,बगटुट भागा वहाँ से। रास्ते में उसे

मिला एक भालू। उसे भागते देख कर भालू पूछ बैठा,महाराज! कहाँ भागे चले

जा रहे हैं? क्या बात है?

बाघ ने बकरे वाली बात बताई और कहा,वह जानवर मुझे खा जाना चाहता था। भालू ने आश्चर्य से कहा,नहीं महाराज! ऐसा नहीं हो सकता। चलिए चल कर देखते हैं।

बाघ ने मना किया किंतु जब भालू बारंबार कहने लगा तो बाघ ने कहा,एक शर्त पर मैं चलूँगा। वह यह कि तुम्हें अपनी पूँछ मेरी पूँछ से बाँधनी होगी। कहीं ऐसा हो कि तुम मुझे छोड़ कर भाग आओ।

भालू सहमत हो गया। तब दोनों ने अपनी-अपनी पूँछें एक-दूसरे की पूँछ से बाँधी और गुफ़ा तक जा पहुँचे। बकरे ने देखा,इस बार तो भालू भी है। वह और ज़्यादा डर गया। इधर भालू ने बाघ से कहा कि वह पूछे,बाघ भालू से कहने लगा कि वह पूछे। अंततः भालू ने ही पूछा। बकरे ने फिर वही जवाब दिया किंतु इस बार भालू शब्द भी जोड़ दिया। सुन कर दोनों-के-दोनों भाग खड़े हुए। बाघ सरपट दौड़ा जा रहा था और भालू की चमड़ी छिल गई थी। जगह-जगह से ख़ून बहने लगा था। भालू दर्द से बिलबिला कर चीख़ने लगा। तभी एक लोमड़ी ने यह दृश्य देखा। वह पूछने लगी,क्या बात है,जंगल के राजा? यह कौन-सा खेल है?

उसकी बात सुन कर बाघ रुका। भालू और बाघ ने सारी बात बताई। लोमड़ी ने कहा,महाराज! चलिए,मैं भी चलती हूँ। देखें तो सही कि माजरा क्या है।

यह सुन कर बाघ और भालू ने 'नहीं' कहा। फिर जब लोमड़ी ने काफ़ी ख़ुशामद की तो बाघ ने फिर वही शर्त रखी जो उसने भालू के सामने रखी थी। लोमड़ी तैयार हो गई किंतु भालू ने साफ़ इंकार कर दिया। किंतु बाघ के सामने उसकी क्या चलती! अंततः तीनों ने फिर एक-दूसरे की पूँछ से अपनी-अपनी पूँछें बाँधी और गुफ़ा के मुहाने पर जा पहुँचे। इस बार लोमड़ी ने पूछा। बकरे ने लोमड़ी शब्द जोड़ते हुए फिर वैसा ही जवाब दिया। मारे डर के तीनों भागे, इस बार भालू के साथ-साथ लोमड़ी की भी चमड़ी छिल गई। नक्शा ही बिगड़ गया दोनों का। बकरे की जान निकली जा रही थी।

थोड़ी ही देर में सवेरा हुआ। बारिश थम गई। बकरे ने सोचा,जान बची लाखों पाए। और बिना विलंब किए वह तुरंत वहाँ से ऐसा भागा कि सीधे घर पहुँच कर ही साँस ली। उसने अपने कान पकड़े कि आज के बाद ज़्यादा लालच नहीं करूँगा।

स्रोत :
  • पुस्तक : बस्तर की लोक कथाएँ (पृष्ठ 105)
  • संपादक : लाला जगदलपुरी, हरिहर वैष्णव
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2013

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY