राजा की बेटी
एक राज्य में राजा और रानी रहते थे। काफ़ी दिन हुए उनकी एक भी संतान नहीं थी। संतान न होने के कारण राजा और रानी ने बहुत तपस्या की। तपस्या के फलस्वरूप एक कन्या का जन्म हुआ। कन्या की छठी के लिए एक ब्राह्मण को बुलाया गया। बच्चे का हाथ देख कर ब्राह्मण घबरा गया और मन में विचार करने लगा कि यह कन्या तो बहुत ज्ञानी होगी। इसके बहुत ज्ञानी होने से ब्राह्मणों की कोई क़द्र नहीं होगी। ऐसा सोच कर ब्राह्मण ने कन्या को किसी तरह मारने के उद्देश्य से राजा से कहा,महाराज! यह कन्या बड़ी होने पर अपने माता-पिता का नाश करेगी। इतना ही नहीं अपितु उसके बाद यह राज्य को भी नष्ट कर देगी।
यह सुन कर राजा भी डर गया और ब्राह्मण से पूछने लगा,तुम्हीं बताओ कि क्या किया जाए?
ब्राह्मण बोला,हे महाराज! इसे लकड़ी के संदूक में भर कर नदी में बहा दीजिए।
यह सुन कर राजा भयवश बच्चे को नदी में बहाने के लिए तैयार हो गया। ब्राह्मण के कहे अनुसार उसने लकड़ी की संदूक बनवाई और उसमें बच्चे को भर कर नदी में बहा दिया। इससे जल की रानी राजा पर बहुत कुपित हुई। फिर उसने बच्चे की रक्षा का उपाय किया। 'सोना देख कर कोई भी संदूक को पानी से निकालेगा और इस तरह बच्चे का लालन-पालन हो जाएगा' ऐसा सोच कर जल रानी ने लकड़ी के संदूक को सोने का बना दिया। इसके बाद सोने का वह संदूक पानी पर उभर कर तैरने लगा। वह तैरता हुआ बहने लगा। जल रानी ने कन्या की रक्षा हेतु उसे आशीर्वाद दिया। सोने का वह संदूक तैरता हुआ एक दूसरे राज्य में जा पहुँचा वहाँ घाट पर एक धोबी कपड़े साफ़ कर रहा था। सोने का संदूक देख उसे उसने लालचवश खींचने का प्रयास किया किंतु उसे लालची समझ कर वह संदूक उसकी पकड़ में नहीं आया। वह उसकी पहुँच से दूर होता जाता और बारंबार डूबता व ऊपर आता। यह देख कर धोबी बहुत परेशान हो गया और गाँव के एक कुम्हार को,जो मिट्टी लेने के लिए नदी के पास ही आया हुआ था,बुला लाया। उससे सारी बातें कही। सुन कर कुम्हार बोला,देखो भाई! संदूक तो तुम रख लेना किंतु संदूक के भीतर जो कुछ भी होगा,उसे मैं ले लूँगा मंज़ूर हो तो बोलो?
धोबी उसकी बात सुन कर राज़ी हो गया। तब कुम्हार ने वह संदूक नदी से निकाली। संदूक खोला तो वहाँ एक सुंदर-सी बालिका थी। उस कुम्हार की कोई संतान नहीं थी। उस बच्चे को पा कर वह बहुत सुख का अनुभव करने लगा। वह उसे अपने घर ले गया। उसका लालन-पालन करने लगा। बच्ची किसी सुंदर फूल की तरह दिनों-दिन बढ़ने लगी। कुम्हार हंडियाँ बनाता तो वह बच्ची उन्हें छू देती। उसके छूते ही माटी की हंडियाँ सोने की हो जातीं। सोने की ठंडी होने के कारण वे बहुत बिकतीं। इस तरह हंडियों का व्यवसाय करते-करते कुम्हार भी बहुत धनवान बन गया। बच्ची भी सुंदर फूल की तरह बढ़ती हुई सज्ञान हो गई। फिर वह विवाह योग्य भी हो गई।
उधर उस राजा की कोई दूसरी संतान नहीं हो रही थी। यह देख कर राजा ने दूसरा विवाह करने का निश्चय किया और प्रजा के लोगों को विवाह-योग्य कन्या खोजने भेजा। खोजते खोजते लोग उसी कुम्हार के घर पहुँचे और उसकी बेटी का हाथ राजा के लिए माँगने लगे। कुम्हार उनकी बात टाल कर बेटी देने से मना करने लगा। तब प्रजा के कुछ प्रमुख लोगों ने कुम्हार को किसी तरह डरा-धमका कर राज़ी किया। फिर विवाह की तैयारी होने लगी। तिथि के अनुसार विवाह की रस्में आरंभ हुईं किंतु राजा की बेटी इसका विरोध करने लगी। तब राजा के मन में शंका उत्पन्न हुई कि अंततः यह लड़की मुझसे विवाह क्यों नहीं करना चाहती? ज़रूर इसमें कोई-न-कोई रहस्य है। यह सोच कर उसने उसी ब्राह्मण को बुला भेजा। ब्राह्मण आया तो राजा ने उसे सारी बातें बताईं और कहा कि वह भावी दुल्हन का हाथ देख कर बताए कि आख़िर क्या बात है? तब ब्राह्मण ने उस कन्या का हाथ देखा। उसका हाथ देखते ही ब्राह्मण अपनी सुध-बुध खो बैठा। उस पर पानी के छींटे डाले गए तब वह सचेत हुआ। मन-ही-मन विचार करने लगा कि यह तो इसी राजा की वही बेटी है जिसे लकड़ी के संदूक में भर कर नदी में बहा दिया गया था। किंतु यह जीवित कैसे है? उसे यह विचार मथने लगा। उसे चिंता में पड़ा देख कर सारे-के-सारे लोग घबरा गए और पूछने लगे कि आख़िर बात क्या है? तब ब्राह्मण और भी घबरा गया और 'अभी आता हूँ' कह कर वहाँ से उठ कर भाग चला।
उसे भागते देख राजा की बेटी कहने लगी,हे पिताजी! यह वही पापी ब्राह्मण है जिसने ईर्ष्या-वश मुझे लकड़ी के संदूक में भरवा कर नदी में बहाने का सुझाव आपको दिया था। इसकी चाल को न समझ कर आपने मुझे संदूक में भर कर नदी में बहा दिया था।
यह सुन कर राजा क्रोधित हो गया और ब्राह्मण को पकड़ लाने के लिए अपने सैनिकों को भेजा। ब्राह्मण डर के मारे राज्य छोड़ कर ही भागा चला जा रहा था। उसी समय राजा के सैनिकों ने उसे रास्ते में पकड़ लिया और राजा के सामने पेश किया। अब ब्राह्मण के सामने सच बतलाने के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं था। उसने सच बात बतला दी और कहने लगा, इस कन्या का हाथ देख कर मैं जान गया था महाराज,कि यह कन्या बहुत ही गुणी होगी किंतु मैंने जान-बूझ कर यह बात आपको नहीं बतलाई। मुझे डर था कि यह सबसे अधिक अक़्लमंद होगी और इसकी अक़्लमंदी के सामने हमें कोई भी नहीं पूछेगा। हमारी कोई क़द्र नहीं होगी।
यह सुन कर राजा अत्यंत क्रोधित हुआ। 'तूने इतनी सारी बातें मुझसे छुपा रखी थी' कह कर राजा ने उस पापी ब्राह्मण को कठोर दंड दिया। उसकी जम कर पिटाई भी की गई।
इसके बाद राजा को उसकी पुत्री मिली और प्रजा को सुख। राजा ने अपनी पुत्री के साथ सुख पूर्वक बहुत दिनों तक राज्य किया।
- पुस्तक : बस्तर की लोक कथाएँ (पृष्ठ 119)
- संपादक : लाला जगदलपुरी, हरिहर वैष्णव
- प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
- संस्करण : 2013
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