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सपने का भोज

sapne ka bhoj

एक बार तीन ख़ान भाई और एक मेव धन कमाने के लिए गाँव से दिसावर के लिए रवाना हुए। वे चलते रहे, चलते रहे। आख़िर एक अच्छी-सी जगह देखकर वे ज़रा सुस्ताने के लिए रुके। ख़ान भाइयों ने कहा, “हम तीन हैं और यह अकेला। हम इसे जैसे चाहेंगे नचाएँगे।” सब भूखे थे। उन्होंने मेव को पैसे दिए और कहा, “जाओ, कुछ खाने को ले आओ!”

मेव हाट गया। उन पैसों से उसने लड्डू ख़रीदे। उसने सोचा, “ख़ान भाई सब चट कर जाएँगे, मुझे कुछ नहीं देंगे। मैं अपना हिस्सा यहीं खा लेता हूँ।” सो वह अपने हिस्से के लड्डू खा गया और बाक़ी ले जाकर ख़ान भाइयों को दे दिए।

लड्डू देखकर उन्होंने कहा, “बस, इतने ही? उल्लू के पट्टे, तूने ज़्यादा लड्डू कैसे खाए?”

मेव ने पोटली में से एक लड्डू उठाया और उसे खाते हुए बोला, “ऐसे!” ख़ान भाइयों का हिस्सा और कम हो गया। उन्होंने सोचा, “अगर हम इससे और सवाल करेंगे तो यह सारे लड्डू खा जाएगा।” सो उन्होंने चुपचाप अपना-अपना हिस्सा लिया और खाने लगे। किसी का पेट भरा, किसी का नहीं। फिर पानी पी कर वे काम की तलाश में निकले।

चारों को अच्छे काम मिले। जब उनके पास काफ़ी पैसे जमा हो गए तो वे गाँव लौटने की सोचने लगे। ख़ान भाइयों ने मंत्रणा की, “घर जाने से पहले हमें कुछ करना चाहिए। मेव का बच्चा हमारे लड्डू खा गया था। उसका बदला तो लेना ही होगा।” फिर उन्होंने मेव को बुलाकर कहा, “भई, घर चलने से पहले एक काम तो करो! ज़रा खीर बनाकर तो खिलाओ!”

ख़ान भाई दूध, चावल और बादाम-पिश्ता ले आए। रात को मेव ने बहुत उम्दा खीर बनाई। ख़ान भाइयों ने कहा, “जिसे सबसे अच्छा सपना आएगा वही इस खीर को खाएगा। बोलो, मंज़ूर?”

मेव ने कहा, “हाँ, भाइयो, जिसे सबसे अच्छा सपना आएगा वही खीर खाएगा।”

“सुबह उठकर सब अपना-अपना सपना सुनाएँगे। जिसे अच्छा सपना आएगा वह खीर खाएगा और जिसका सपना ख़राब होगा वह नहीं खाएगा।”

मेव ने कहा, “ठीक है भाइयो, मंज़ूर है।”

खीर की हँडिया को कपड़े से ढककर उन्होंने उसे अपने सिरहाने रखा और सोने की तैयारी करने लगे। मेव ने सोचा, “ये बदमाश मेरा हिस्सा भी खा जाएँगे, जबकि सबने बराबर ख़र्चा दिया है।”

ख़ान भाई मेव के सोने का इंतज़ार करते रहे और मेव ख़ान भाइयों के सोने का इंतज़ार करता रहा। मेव ने नींद का बहाना किया और ख़र्राटे भरने लगा। ख़ान भाइयों ने उसे गौर से देखा और यक़ीन होने पर कि उसे नींद गई है वे भी बिस्तर लगाकर सो गए। उनके सोते ही मेव दबे पाँव उठा और सारी खीर चटकर गया। फिर वह अपने बिस्तर पर आया और चादर तानकर सो गया। अधिक खाने से उसका अंग-अंग शिथिल हो रहा था और पलकें भारी हो रही थीं। लेटते ही उसे नींद गई।

सुबह ख़ान भाई उठे और बातें करने लगे। मेव अभी गाढ़ी नींद में सोया था। उठकर वह करता भी क्या! वे एक-दूसरे से पूछने लगे, “तुम्हें कैसा सपना आया? तुम्हें कैसा सपना आय?”

एक भाई बोला, “मुझे सपना आया कि मैं अजमेर में हूँ। मैं दरबार में भी गया। दरबार कितना सुंदर था!” फिर उसने दूसरे से अपना सपना सुनाने को कहा।

दूसरा भाई कहने लगा, “मैं जयपुर के दरबार में गया। वहाँ मैंने राजा को भी देखा।”

इस बीच मेव जाग गया था और उनकी बातें सुन रहा था। तीसरा भाई बोला, “अब मैं क्या कहूँ! मैं चलते-चलते मक्का पहुँच गया। वहाँ मैंने पैगंबर को देखा।”

ख़ान भाई अपने सपने सुना चुके तो मेव कराहने लगा, “आह! ऊह! आह!” हर ‘आह’ ‘ऊह’ के साथ वह कभी इस करवट होता कभी उस करवट, मानो कोई सपना देख रहा हो।

“ओ मेव की औलाद, हरामी, साला, तू उठता है कि नहीं?”

“मुझे परेशान मत करो!” उसने कराहते और लोटते हुए कहा।

“बता, तूने क्या सपना देखा?”

“भाइयो, कुछ मत पूछो! एक लंबा-तगड़ा आदमी मेरे पास आया। उसने मुझे बहुत मारा। अभी भी मेरा जोड़-जोड़ दर्द कर रहा है—आह, ऊह, आह! उसने मुझसे कहा, ‘यह खीर खा! चल, शुरू हो जा! पीछे कुछ नहीं बचना चाहिए।’ मैं पूरी खीर खा गया तो उसने मुझे फिर मारा। दुष्ट ने भुरता बना दिया। आह! ऊह!”

“गधा कहीं का, उल्लू, हम तेरे पास ही सो रहे थे, तूने हमें जगाया क्यों नहीं? हम तुझे बचा लेते।”

मेव ने कहा, “भाइयो, मैं तुम्हें कैसे जगाता! एक अजमेर गया हुआ था, दूसरा जयपुर और तीसरा पैगंबर को देखने ठेठ मक्का। मैं बहुत चिल्लाया, बहुत आवाज़ें दीं, पर तुम कैसे सुनते! कोई यहाँ था भी तो नहीं!”

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 192)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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