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मृत राजकुमार और बोलनेवाली गुड़िया

mrit rajakumar aur bolnevali guDiya

एक राजा था। उसके सिर्फ़ एक बेटी थी, कोई बेटा नहीं था। एक साधु रोज़ राजमहल पर भिक्षा माँगने आता था। उसका भिक्षा माँगने का तरीक़ा बड़ा विचित्र था। भिक्षा माँगते समय वह कहता, “तुम्हारा विवाह मुर्दे से होगा। बाबा को भिक्षा दो पुत्री!” राजकुमारी सोच में पड़ जाती, “यह ऐसी अशुभ बात क्यों कहता है?” वह उसे चुपचाप भिक्षा देती और भीतर चली जाती। वह साधु बारह साल लगातार उसके द्वार पर आता रहा, कभी नागा नहीं किया। और प्रतिदिन वह यह कहता, “तुम्हारा विवाह मुर्दे से होगा।”

एक दिन झरोखे में खड़े राजा ने साधु को यह कहते सुन लिया, “तुम्हारा विवाह मुर्दे से होगा। बाबा को भिक्षा दो पुत्री!” राजा नीचे आया और राजकुमारी से पूछा, “वह क्या कह रहा था बेटी?”

राजकुमारी ने कहा, “यह रोज़ाना यही कहता है, ‘तुम्हारा विवाह मुर्दे से होगा। बाबा को भिक्षा दो पुत्री!’ और भिक्षा लेकर चला जाता है। बारह बरस से, मैं छोटी थी तभी से, यह हमेशा यही कहता है।”

राजा के माथे में बल पड़ गए। उसे डर था कि बाबा की भविष्यवाणी सच होकर रहेगी। उसके एक ही तो संतान है और उसका ऐसा भाग्य! उसने व्यथा से कहा, “हमें यह राज्य छोड़ देना चाहिए। चलो, कहीं यात्रा पर चलें।” नौकरों को बुलाकर उसने तमाम ज़रूरी सामान बाँधने का आदेश दिया और सपरिवार यात्रा पर निकल गया।

उधर पड़ोसी राज्य के राजकुमार को एक विचित्र रोग लगा और तमाम इलाज के बावजूद वह मर गया। लेकिन उसे देखकर ऐसा लगता था जैसे वह गहरी नींद में सो रहा हो। ज्योतिषियों ने कहा कि बारह बरस उपरांत उसमें पुनः प्राणों का संचार होगा। सो राजा ने उसे गाड़ने की अनुमति नहीं दी। नगर के बाहर एक हवेली बनवाई और राजकुमार की देह को उसमें रखवा दिया। हवेली के सिंहद्वार अपने पति के लिए भगवान की अराधना की होगी। केवल वही इस हवेली में प्रवेश पर ताला लगाकर उसने वहाँ लिखवाया, “एक दिन ऐसी स्त्री यहाँ आएगी जिसने अपने पति के लिए भगवान की अराधना की होगी। केवल वही इस हवेली में प्रवेश कर सकेगी। उसका हाथ लगते ही यह द्वार स्वतः खुल जाएगा। किसी और के लिए यह द्वार नहीं खुलेगा।”

इस दुखद घटना के कुछ दिन बाद पहले वाला राजा अपनी रानी, राजकुमारी और दल-बल के साथ वहाँ पहुँचा। भूख के मारे सब का बुरा हाल था। तुरंत खाने की तैयारियाँ होने लगीं। राजकुमारी टहलते हुए उस हवेली की तरफ़ निकल गई। उसकी दृष्टि ताला लगे दरवाज़े पर पड़ी। उम्दा बनावट का चमकता हुआ ताला दूर से ही नज़र आता था।

राजकुमारी उसके और पास गई। उसने ताले को छूकर देखा। उसका हाथ लगते ही ताले की कमानी अपनी जगह से हिली और दरवाज़ा खुल गया। वह अंदर गई। उसके अंदर क़दम रखते ही दरवाज़ा वापस बंद हो गया। आगे एक के बाद एक बारह दरवाज़े थे। हर दरवाज़ा उसका हाथ लगते ही खुल जाता और ज्यों ही वह खुले दरवाज़े से आगे बढ़ती दरवाज़ा वापस बंद हो जाता।

हवेली के बीचोंबीच पलंग पर उसने एक निष्प्राण आदमी को देखा। लगता था जैसे वह अगाढ़ नींद में सोया हो। इससे पहले कि वह कुछ समझ पाती कि यह क्या हो रहा है, क्यों दरवाज़े अपने-आप खुलते हैं और उसके पीछे आप ही बंद हो जाते हैं उसने अपने को मुर्दे के पास पाया। निर्जीव देह पर स्वच्छ वस्त्र और रत्नजड़ित चार-पाँच आभूषण थे। मृत के परिजनों ने हवेली में बारह बरसों का पूरा राशन रख रखा था—अनाज, दालें, मसाले और कपड़े, बर्तन और थालियाँ। राजकुमारी का सर चकरा गया।

साधु बाबा का कहा याद आया। सोचा, “मैं इससे बच नहीं सकती थी। उसका कहा होकर रहा।” उसने मृतक के चेहरे पर से चादर हटाई। चेहरा वैसा ही निर्जीव था जैसा मुर्दे का होता है। पर उस पर ऐसी शांति थी मानो गहरी नींद में हो। “अब क्या करूँ? लगता है मुझे शव के साथ कारावास में बंद कर दिया गया है। कुछ तो करना चाहिए।” उसने अपने-आप से कहा और शव के पाँवों पर मालिश करने लगी।

लगभग बारह साल तक वह उसकी देखभाल करती रही और उसके पाँवों की मालिश करती रही। बारह दरवाज़ों में बंद वह जाती भी तो कहाँ? सुबह उठकर वह साफ़-सफ़ाई करती, नहाती, खाना बनाती, शव की देखभाल करती और अपनी निराली नियति के बारे में सोचती रहती।

उधर जंगल में रानी ने कहा, “खाना बन गया। राजकुमारी कहाँ गई?” राजा उसे ढूँढ़ने गया, पर वह कहीं नज़र नहीं आई। थोड़ी देर बाद राजा ने हवेली में से उसका चिल्लाना सुना। राजा ने आवाज़ दी, “बेटी, अंदर क्या कर रही हो? बाहर आओ!”

राजकुमारी ने उन्हें सारी बात बताई, “मेरे हाथ लगाते ही द्वार खुल गए और ज्यों ही मैंने अंदर क़दम रखा अपने-आप बंद हो गए। यहाँ मैं बिलकुल अकेली हूँ।”

“अंदर क्या है?”

“पलंग पर एक आदमी का शव रखा है, और कुछ नहीं है।”

“बेटी, लगता है तुम्हारे भाग्य में यही लिखा था। जो बाबा ने कहा वह होकर रहा। ताले खुल नहीं सकते।”

पार्श्व और पिछवाड़े से भीतर जाने की सबने बहुत कोशिश की, पर अकारथ। आख़िर हारकर उन्होंने कहा, “कुछ नहीं किया जा सकता। हम सुबह चले जाएँगे। तुम्हें अपने भाग्य पर छोड़ने के अलावा हमारे पास और कोई चारा नहीं।” सुबह दुखी मन से उन्होंने वह जगह छोड़ दी। समय बीतता रहा। उन्हें बुढ़ापे ने दबोचा।

बंद हवेली में राजकुमारी मुर्दे के पाँवों की मालिश करती, स्नान-ध्यान करती, रात को भगवान की पूजा करती और पति के लिए प्रार्थना करती। दसवें बरस एक नट की बेटी उधर आई। उसने चारों तरफ़ घूमकर हवेली को देखा, दरवाज़े को खोलने की कोशिश की और फिर छत पर चढ़ गई।

किसी आदमजाद का चेहरा देखने के लिए राजकुमारी तरस गई थी। “अगर घर में कहीं छेद ही होता तो वह किसी बच्चे को अंदर ले लेती। काश, कोई लड़की ही होती जिससे घड़ी भर बतिया लेती!” उसने सोचा। और तभी उसे खिड़की से भीतर झाँकती एक लड़की दिखी।

“ए छोरी, अंदर आएगी?”

“हाँ,” नट की लड़की ने कहा

“तुम्हारे माँ-बाप हैं? अगर हों तो अंदर मत आना। वापस बाहर नहीं निकल सकोगी। अगर तुम्हारे घर में कोई नहीं हो तो अंदर जाओ!”

“कहाँ! मेरे आगे-पीछे कोई नहीं है।”

राजकुमारी उसे खींचकर खिड़की से अंदर लेने की कोशिश करने लगी। नटनी की देह में बहुत लोच थी। शरीर को मोड़-माड़कर वह भीतर गई। राजकुमारी ख़ुश थी। कोई संगी तो मिला। संग-साथ हो तो समय आराम से कटता है। और दो साल व्यतीत हो गए।

मृत राजकुमार के बारह बरस पूरे होने वाले थे। उसकी निर्जीव होने वाले थे। उसकी निर्जीव देह में प्राणों का संचार होने का समय नज़दीक गया था।

एक दिन राजकुमारी ने नहाते हुए खिड़की के पास पेड़ पर बैठी सगुन चिड़िया की आवाज़ सुनी। वह कह रही थी, “बारह बरस की अवधि समाप्त होने वाली मृत राजकुमार और बोलनेवाली गुड़िया है। अगर कोई चाँदी की कटोरी में इस पेड़ की पत्तियों का रस लेकर मृत राजकुमार के मुँह में टपकाए तो वह वापस ज़िंदा हो जाए।”

राजकुमारी ने तुरंत उस पेड़ की पत्तियाँ सिला पर बांटीं और चाँदी की कटोरी में उनका रस डाला। कटोरी लेकर वह शव की तरफ़ बढ़ी। तभी उसके मन में विचार आया कि वह नहाते-नहाते बीच ही में उठ गई थी। पहले उसे नहाकर देह शुद्ध कर लेनी चाहिए। उसके पश्चात शिव की विधिवत पूजा करके राजकुमार के मुँह में पत्तियों का रस डालना चाहिए। सो कटोरी को रखकर वह नहाने चली गई।

नटनी ने उससे पूछा, “कटोरी में क्या है? इसे यहाँ क्यों रखा है?”

राजकुमारी ने उससे कुछ नहीं छुपाया। नटनी ने सोचा कि उसे यह मौक़ा नहीं चूकना चाहिए। राजकुमारी के पूजा के लिए बैठते ही वह राजकुमार के शव के पास गई और उसके होंठों को अलग करके उसके मुँह में चाँदी की कटोरी का रस डाल दिया। रस अंदर जाते ही राजकुमार ने आँखें खोल दीं, मानो नींद में सो रहा था, और “शिव, शिव!” कहते हुए उठ बैठा। नटनी को देखकर उसने पूछा, “तुम कौन हो?” “आपकी पत्नी।”

राजकुमार ने उसका बहुत आभार माना और उसे गले लगा लिया। वह स्त्री जिसने पूरे बारह बरस उसकी देखभाल की वह पास के कमरे में पूजा कर रही थी। राजकुमारी कमरे से बाहर आई तो उसने दोनों को बहुत अंतरंगता से बातें करते देखा। “हे भगवान, मैंने बारह बरस तपस्या की और उसका यह अंत हुआ! निश्चित ही मेरे भाग्य में सुख नहीं लिखा है”, उसने सोचा। वह सेविका की तरह उनका काम करने लगी, जबकि राजकुमार और नटनी आमोद-प्रमोद में लगे रहते थे।

पर जो हो, आख़िर वह राजकुमारी थी। उसने रानी के पेट से जन्म लिया था और जो राजकुमार की पत्नी बन बैठी वह थी एक अकिंचन नटनी। दोनों के रहन-सहन, हाव-भाव और बोली का अंतर राजकुमार से छुपा रहा। उसे संदेह हुआ। एक दिन राजकुमार ने नटनी से कहा, “मैं शिकार पर जा रहा हूँ। वहाँ से शहर जाऊँगा। बोलो, तुम्हारे लिए क्या लाऊँ?”

बहुत समय से नटनी को नटों का खाना नसीब नहीं हुआ था। सो उसने जंगली तरकारियाँ और सूखी रोटियाँ लाने को कहा। राजकुमार को निराशा हुई। साड़ी, इत्र-फुलेल जैसी स्त्रीसुलभ चीज़ों को छोड़कर यह नाकुछ सूखी रोटियों के लिए कह रही है! फिर उसने नटनी के मार्फ़त राजकुमारी से पुछवाया कि उसे क्या चाहिए। राजकुमारी ने कहा, “मुझे विशेष कुछ नहीं चाहिए। स्वामी से कहना कि ला सकें तो बोलने वाली एक गुड़िया ले आएँ।”

“यह भी विचित्र है! इसे केवल बोलने वाली गुड़िया चाहिए, और कुछ नहीं!” राजकुमार ने सोचा।

राजकुमार ने जंगल में ख़ूब शिकार किया। लौटते हुए वह नटों के डेरे से नटनी की मँगाई बदबूदार तरकारियाँ और बासी रोटियाँ लेता आया। शहर से राजकुमारी के लिए बोलने वाली गुड़िया लाना भी वह नहीं भूला था। अपनी पसंद की खाने की चीज़ें देखकर नटनी का चेहरा खिल गया। रईसों का खाना खा-खाकर उसका शरीर आधा रह गया था।

रात को सब खा-पीकर सो गए तो अचानक बोलने वाली गुड़िया ने कहा, “मुझे कोई कहानी सुनाओ!”

राजकुमारी ने कहा, “कौन-सी कहानी सुनाऊँ? मेरा जीवन स्वयं एक कहानी है।”

“तो वही सुनाओ!” गुड़िया ने मचलते हुए कहा।

इस पर राजकुमारी ने उसे अपना पूरा वृत्तांत सुनाया। जो कथा मैंने आपको सुनाई उसकी एक भी बात उसने नहीं छोड़ी। राजकुमारी की कथा सुनते हुए गुड़िया सर हिलाती रही और “हूँ, हूँ” करती रही। अगले कमरे में लेटे राजकुमार ने भी पूरा वृत्तांत सुना। अंत में राजकुमारी ने कहा, “सिला पर चाँदी की कटोरी रखकर पूजा करने गई। मैं पूजा से वापस आती उससे पहले ही नटनी ने राजकुमार को रस पिला दिया। अब वह स्वामिनी है और मैं सेविका।”

कहानी का अंत सुनकर राजकुमार आपे से बाहर हो गया। बग़ल में सो रही नटनी को खींचकर उसने बेंत मारी और हवेली से निकाल दिया।

“तुम मेरी पत्नी नहीं, नटों की छोरी हो। दूर हो जाओ मेरी आँखों से!”

वह चिल्लाया। फिर वह राजकुमारी के पास गया। पूरे बारह बरस इतनी निष्ठा से उसकी देखभाल करने वाली को उसने सांत्वना दी। उनकी बातें और खिलखिलाहट रात भर हवेली में गूँजती रही।

हवेली से बाहर की दुनिया में राजकुमार के माँ-बाप एक-एक दिन गिन रहे थे। बारह बरस पूरे हुए तो वे राजकुमार का हाल जानने के लिए उत्कंठित हो उठे। वे हवेली पर आए। पूरा नगर उनके साथ था। उन्होंने देखा कि दरवाज़े खुले पड़े हैं और हवेली के बीच वाले कमरे में राजकुमार और राजकुमारी बतिया रहे हैं और धीमे-धीमे हँस रहे हैं।

कृतज्ञ राजा और रानी ने बहू के चरण छूए और कहने लगे, “तुम्हारे पिछले जन्मों की पुण्याई और इस जन्म की तपस्या के प्रताप से हमारा बेटा फिर जीवित हो गया। उसका मुख ऐसा खिला हुआ है जैसे रात भर सोकर उठा हो। इसका श्रेय तुम्हारी तपस्या को है बेटी!”

बेटे और बहू को वे राजमहल ले गए। उनके विवाह के दिन नगर को फूलों और दीपमालाओं से सजाया गया। इस माँगलिक अवसर पर उन्होंने बहू के माता-पिता को भी बुलाया। वे काफ़ी वृद्ध और दुर्बल हो गए थे। उनकी आँखें बिनौलों जैसी हो गई थीं और माटी की काया माटी में मिलने की तैयारी कर रही थी। पर यह शुभ समाचार सुनकर उन्हें जैसे नया जीवन मिल गया। बेटी को देखने और उसकी शादी में शामिल होने के लिए वे अदेर चल पड़े।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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