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चतुर का डेरा द्वार पर

अन्य

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एक व्याध एक जंगल में झोपड़ी बना कर रहता था। उसके साथ उसकी पत्नी और दो बेटे भी थे। व्याध का काम ही था सुबह उठना और आखेट पर चला जाना। वह जंगल में जाकर सांभर,चीतल,ख़रगोश आदि जानवर मार लाता और उसी से अपने परिवार का भरण-पोषण किया करता।

इसी तरह एक दिन वह जंगल में काफ़ी दूर निकल गया। जाते-जाते ऐसी जगह पहुँचा जहाँ तो किसी मनुष्य का नामो-निशान था और किसी पक्षी की चहचहाहट। तभी उसे एक तालाब दिखलाई पड़ा। उसने मन में सोचा,'ज़रूर जंगल के जानवर इस तालाब में पानी पीने आते होंगे। यहाँ रुक जाने पर कोई-न-कोई शिकार ज़रूर मिल जाएगा।' यह सोच कर वह एक पेड़ की आड़ में छिप कर शिकार की प्रतीक्षा करने लगा।

थोड़ी ही देर में उसे एक जंगली सुअर आता दिखलाई पड़ा। जंगली सुअर कर पानी पी ही रहा था कि एक चीतल भी वहाँ पहुँचा दोनों अगल-बग़ल में ही पानी पीने लगे। व्याध बहुत प्रसन्न हुआ कि चलो आज दो-दो शिकार मिल गए। उसने मन में सोचा कि सबसे पहले सुअर को मारा जाए और फिर बाद में चीतल को। ऐसा सोच कर उसने धनुष चढ़ाया और बाण साध कर सुअर पर छोड़ दिया। बाण जाकर सुअर के पेट में लगा। दर्द से व्याकुल होकर सुअर ने पास ही पानी पी रहे चीतल पर अपने दाँतों से वार कर दिया। सुअर के नुकीले दाँत चीतल के पेट में लगे। इससे चीतल की अँतड़ियाँ बाहर निकल आईं। वह वहीं मर गया। जंगली सुअर भी तड़प-तड़प कर मर गया।

इधर जिस पेड़ की आड़ में वह व्याध छिपा था,उसमें एक काला और ज़हरीला साँप रहता था। वह साँप अपने कोटर से बाहर निकल आया और व्याध को डस लिया। व्याध ने यह देखा तो उसने धनुष उठा कर साँप पर वार किया। साँप की मृत्यु हो गई। व्याध भी विष चढ़ने के कारण नहीं बच सका। इस तरह सुअर,चीतल,साँप और व्याध चारों मरे पड़े थे। इसी समय वहाँ आई एक लोमड़ी। लोमड़ी ने अपने भोजन के लिए एक साथ इतना इंतज़ाम देखा तो बड़ी प्रसन्न हुई और विचार करने लगी—

'सुअर और चीतल को

खाऊँगी कई साल

साँप और शिकारी को

खाना है आज कल।'

तभी उसने देखा कि धनुष में भी चमड़ी की बनी बादी (डोरी) बँधी हुई है। उसकी भीनी-भीनी महक उसके नथुनों में समाती चली जा रही थी। सो उसने फिर सोचा—

'पहले इस को खा लूँ मैं

फिर खाऊँगी उन सबको

लद गए दिन भूख के

चिंता नहीं अब मुझ को।'

यों विचार कर लोमड़ी धनुष की डोरी पर टूट पड़ी। उसने जैसे ही डोरी को अपने दाँतों से काटा,धनुष की डोरी टूटी और उसकी डांडी उसके गले में जा लगी। इससे उसकी श्वास नलिका कट गई और वह वहीं मर गई।

इसी को कहते हैं,'अधिक चतुर का डेरा द्वार पर'।

स्रोत :
  • पुस्तक : बस्तर की लोक कथाएँ (पृष्ठ 97)
  • संपादक : लाला जगदलपुरी, हरिहर वैष्णव
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2013

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