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चील की बेटी

cheel ki beti

एक धनी कुम्हार के बेटियाँ तो कई थीं, पर बेटा एक भी नहीं। अगली बार उसकी पत्नी फिर गर्भवती हुई तो उसने पत्नी से कहा, “इस बार लड़की मत जनना, नहीं तो मैं तुम्हें बनजारों को बेच दूँगा।”

प्रसव का समय नज़दीक आया तो रिवाज़ के मुताबिक़ पत्नी मायके चली गई। दुर्भाग्य से उसके फिर लड़की पैदा हुई।

जच्चा भय से पीली पड़ गई। इससे पहले कि इसके बारे में पति को कोई समाचार मिलता उसने नवजात बच्ची को साड़ी में लपेटकर घड़े में रखा, घड़े को दूसरे कपड़े में बाँधा और उसे नदी में छोड़ दिया। नदी घड़े को बहा ले गई। थोड़ा आगे नदी के घाट पर एक धोबी कपड़े धो रहा था। उसकी नज़र बहते घड़े पर पड़ी। वह नदी में कूदा और घड़े को घाट पर ले आया। घड़े में बच्ची को देखकर वह अप्रतिभ रह गया। वह सोच ही रहा था कि कैसे वह पत्नी को यह बच्ची सौंपेगा कि एक चील ने झपट्टा मारा और बच्ची को ले उड़ी। बरगद के पेड़ पर अपने घोंसले में जाकर चील ने बच्ची को देखा तो उसके हृदय में वात्सल्य उमड़ पड़ा। बच्ची उसे बहुत प्यारी लगी। उसने उसका पालन-पोषण करने का निश्चय किया।

चील ने उसके लिए बरगद पर बड़ा और आरामदेह घोंसला बनाया। आदमियों की बस्ती में वह जब भी कोई ऐसी चीज़ देखती जो उसे बच्ची के लिए अच्छी लगती तो वह उस पर झपटती और उसके लिए ले आती। खाना, कपड़े, खिलौने—उसने किसी तरह की कोई कमी नहीं रखी। दिनों-दिन बच्ची बडी होने लगी। एक दिन चील अपनी बेटी के लिए कपड़ों की तलाश में मँडरा रही थी कि उसने शाही घाट पर रानी को नहाते देखा। रानी के कपड़े और गहने किनारे पर रखे थे। सो अब चील की बेटी के पहनने के लिए शाही पोशाक थी। कुछ ही दिनों में उसके पास कंघे, कंघियाँ, हिंगुल की डिबियाँ, तेल की शीशियाँ वग़ैरा तमाम चीज़ें गईं।

छोटी लड़की बढ़ते-बढ़ते सुंदर युवा स्त्री हो गई। वह बरगद पर ही रहती रही। वही उसका घर था। एक दिन चील ने उससे कहा, “बेटी, अब तुम जवान हो गई हो। तुम यहाँ अकेली रहती हो इसकी मुझे चिंता लगी रहती है। कई बार मुझे बहुत दूर जाना पड़ता है। मेरी बात ध्यान से सुनो, जब भी तुम पर कोई संकट आए तुम यों गाना—

री हवा!

री बरगद के पत्ते हिलाने वाली हवा!

माँ को बुलाओ री, माँ को बुलाओ री!

मेरी चील माँ को बुलाओ री!

री हवा!

मैं जहाँ भी होऊँगी इसे सुन लूँगी और उसी पल जाऊँगी।”

एक दिन दुपहरी को गर्मी और थकान से परेशान एक सौदागर सुस्ताने के लिए उस बरगद के नीचे रुका। सांय-सांय करते जंगल में दूर-दूर तक किसी दूसरे आदमी का चिह्न नहीं था। सौदागर बरगद के नीचे बैठा ही था कि ऊपर से एक लंबा बाल उसकी गोद में गिरा। बाल रेशम-सा मुलायम और सात हाथ लंबा था। सौदागर हैरान रह गया। उसने ऊपर देखा। यह देखकर उसके अचरज का ठिकाना रहा कि एक ख़ूबसूरत लड़की आराम से डाल पर बैठी हुई कंघे से अपने बाल सुलझा रही है। सौदागर ने उससे अटकते हुए पूछा, “तुम कौन हो? औरत, देवी या चुड़ैल?”

बेचारी लड़की ने आज से पहले आदमी नहीं देखा था, हालाँकि चील माँ से उनके बारे में सुना ज़रूर था। जीवन में पहली बार आदमी को देखकर वह घबरा गई। उसे कुछ समझ नहीं पड़ा कि वह क्या जवाब दे। सो वह चील माँ का सिखाया गाना गाने लगी—

री हवा!

री बरगद के पत्ते हिलाने वाली हवा!

माँ को बुलाओ री! माँ को बुलाओ री!

मेरी चील माँ को बुलाओ री!

री हवा!

गाना पूरा होते ही चील गई। पूछा, “बेटी, क्या बात है?” जवाब में बेटी ने बरगद के नीचे बैठे आदमी की ओर इशारा किया। चील ने नीचे देखा और कुँआरी बेटी की माँ की तरह उसे तौलने-परखने लगी, “देखने-भालने में तो अच्छा है। अगर यह मन का भी अच्छा हो तो मेरी बेटी के साथ इसकी ठीक जोड़ी बैठेगी।”

सो वह पेड़ के नीचे बैठे सजीले सौदागर के पास गई और उसे बेटी के बारे में सब-कुछ बता दिया। सौदागर ने कहा, “ऊपर वाले की मेहरबानी से मुझे किसी तरह की कोई कमी नहीं है। मेरे पहले से सात पत्नियाँ हैं। अगर तुम्हें इससे कोई एतराज हो तो मैं तुम्हारी बेटी से ब्याह करने को तैयार हूँ। मैं वचन देता हूँ कि इसे बहुत प्यार और आराम से रखूँगा। इसे कोई तकलीफ़ नहीं होगी।”

सौदागर की साफ़गोई और बात करने का सलीक़ा चील को अच्छा लगा। उसने एक पल सोचा और निश्चय कर लिया। हालाँकि बेटी को अपने से अलग करना आसान नहीं था, मगर जी कड़ाकर उसने बेटी को दुलहन का जोड़ा पहनाया और उसे सौदागर को सौंप दिया। आँखों में आँसू लिए हुए उसने सौदागर से आग्रह किया कि वह उसकी बेटी को बहुत जतन से रखे। फिर उसने बेटी को कान में कहा कि वह उसे जब चाहे बुला ले। उसका गाना सुनते ही वह जाएगी।

सौदागर दुलहन को घर ले गया। वह उसे बहुत प्यार करता था और उसका हर तरह से ख़याल रखता था। उसकी पहले वाली सात पलियाँ चील की बेटी से डाह करने लगीं। उन्हें अंदेशा था कि नई-नवेली सुंदर सौत के प्यार में वह उन्हें भुला देगा। नई सौत को दुख देने का कोई मौक़ा वे हाथ से नहीं जाने देती थीं।

एक दिन सातों सौतनें उसके पास गईं और कहने लगीं, “तुम सोचती होंगी तुम हम सबसे अलग हो। तुम्हारे कोई सुरखाब के पर नहीं लगे हैं। चौका-बासन, झाड़-पोंछ और घर के दूसरे कामों में हम दिन भर खटती हैं और तुम्हें खाने और सोने के सिवा कोई काम ही नहीं! रसोई में जाओ और हमारे लिए खाना पकाओ।”

चील की बेटी ने आज दिन तक कभी खाना नहीं बनाया था। वे उसे रसोई में अकेली छोड़ गईं तो अपनी लाचारी पर वह रो पड़ी। एकाएक उसे चील माँ की याद आई। वह घर के पिछवाड़े के बग़ीचे में गई और चील माँ का सिखाया हुआ गाना गाने लगी। चील अपनी बात की पक्की निकली। पलक झपकते वह गई। पूछा, “क्या बात है? मुझे क्यों बुलाया? तुम रो क्यों रही हो?”

बेटी की परेशानी सुनकर उसने कहा, “बस, इतनी-सी बात है? इसमें क्या मुश्किल है! मैं तुम्हें बताती हूँ, सुनो! भगोना पानी से भरो और उसमें चावल का एक दाना डाल दो। ऐसे ही दूसरे भगोने में सब्ज़ियाँ डाल दो। फिर दोनों भगोनों को चूल्हे पर रख दो। बस, और कुछ करने की ज़रूरत नहीं। थोड़ी देर बाद तुम रसोई में आओगी तो तुम्हें चावल, सब्ज़ी सब तैयार मिलेगा। फिर चाहे जितनों को खिलाओ, खाना ख़त्म नहीं होगा और इतना बढ़िया कि खाने वाले अंगुलियाँ चाटते रह जाएँगे।”

इतना कहकर चील उड़ गई। चील की बेटी ने वैसा ही किया। आनन-फ़ानन में खाना तैयार हो गया। सात सौतनें खाने बैठीं। उन्होंने थालियों के नीचे ज़मीन में खड्डे खोद दिए थे। चील की बेटी खाना परोसती तो वे नज़र बचाकर खाना खड्डे में डाल देतीं और फिर परोसने के लिए कहतीं। पर खाना तो अक्षय था। चाहते हुए भी उन्हें नई सौत की सराहना करनी पड़ी। उनका पहला वार ख़ाली गया।

अगले दिन उन्होंने चील की बेटी से बाड़ा साफ़ करने को कहा। यह काम भी उसने पहले नहीं किया था। सो वह कदली के नीचे खड़ी होकर माँ को बुलाने के लिए गाने लगी—

री हवा!

री बरगद के पत्ते हिलाने वाली हवा!

माँ को बुलाओ री, माँ को बुलाओ री!

मेरी चील माँ को बुलाओ री!

री हवा!

चील आई। बेटी के आज के काम के बारे में सुनकर उसने कहा, “इसमें क्या मुश्किल है! झाड़ू में से एक सलाई निकालो और उसे बाड़े की इस छोर से उस छोर की ओर हौले से घुमाओ। फिर देखो क्या होता है!”

उसने वैसा ही किया। बाड़ा ऐसा साफ़-सुथरा हो गया कि इतनी साफ़-सुथरी जगह किसी ने देखी भी नहीं होगी। सौदागर बहुत ख़ुश हुआ। वह उसे और भी अधिक चाहने लगा।

चैत बिहू त्योहार में कुछ ही दिन शेष रह गए थे। सौदागर ने आठों पलियों को पाँच-पाँच टोकरियाँ रुई दी और उन्हें उसके लिए त्योहार के कपड़े बुनने का आदेश दिया। अंत में कहा, “देखूँ, कौन सबसे अच्छा कपड़ा बुनती है!” सात सौतनों ने तुरंत काम शुरू कर दिया। पहले उन्होंने रुई और कपास को अलग किया और फिर सूत कातकर कपड़ा बुनने लगीं। आठवीं पत्नी भी उनकी तरह काम करना चाहती थी, पर कैसे? पहले कभी कपड़ा बुना हो तब न! सो वह मुँह लटकाकर कोने में बैठ गई। सौतनें एक-दूजे से कहतीं, “इसका खेल ख़त्म हो गया समझो। कातना-बुनना इसे आता ही नहीं। देखना, वो इसे घर से निकाल देंगे।”

रात को चील की बेटी ने माँ को बुलाने के लिए बग़ीचे में रोते हुए गाना गाया। माँ ने आते ही चिंतित सुर में पूछा, “क्या बात है मेरी बच्ची, इस बेवक़्त क्यों बुलाया?” बेटी ने कहा कि उसे पाँच टोकरी रुई का कपड़ा बुनना है, पर उसे कुछ आता ही नहीं। चील ने कहा, “चिंता मत करो, सब हो जाएगा। मेरे जाने के बाद बाँस की चार संदूक़चियों में थोड़ी रुई रखकर वापस बंद कर देना। बस, और कुछ करने की ज़रूरत नहीं। चैत बिहू के दिन जब जामाता अपने कपड़े माँगे तो उन्हें चारों संदूक़चियाँ दे देना।”

चील की बेटी ने वैसा ही किया। उसकी सौतनें दिन भर ज़ोर-ज़ोर से बतियाती हुई ठसक के साथ कपड़ा बुनने में लगी रहतीं। नई सौत को कुछ करते ने देखकर उनकी बाछें खिल जातीं। कहतीं, “ससुरी कातने-बुनने का सींग-पूँछ भी नहीं जानती। चैत बिहू को जब वो इससे कपड़ों के लिए कहेंगे तो कितना मज़ा आएगा! मुझसे तो अब और इंतज़ार नहीं होता।”

चैत बिहू के दिन सौदागर की सात पलियों ने उसे सात जोड़े कपड़े दिए, पर आठवीं पत्नी ने उसे बाँस की चार संदूक़चियाँ दीं। सौतनें उल्लास से हँस पड़ीं। सौदागर की भुकुटियाँ तन गईं। बोला, “ये क्या हैं? मेरे कपड़े कहाँ हैं?” चील की बेटी ने कहा, “संदूक़चियाँ खोलकर ख़ुद देख लीजिए!”

सौदागर ने संदूक़चियाँ खोलीं। उनमें उसे देवताओं के कपड़ों सरीखे दिव्य कपड़े मिले। सौदागर समेत सबने यह महसूस किया कि इनकी बनावट और चमक-दमक के आगे बाक़ी सात पत्नियों के कपड़े मोटे और भद्दे चिथड़ों जैसे हैं। सो उन कपड़ों की सौदागर ने चिंदी-चिंदी कर दिए और बहुत उत्साह से चील की बेटी के दिए कपड़े पहन लिए।

कुछ दिन बाद सौतनें यह जान गईं कि उनकी नई सौत ने जो चमत्कारिक काम किए उनके पीछे एक चील है। वे रोज़ सर जोड़कर बैठतीं और षड्यंत्र रचतीं। आख़िर उन्होंने चील से छुटकारा पाने की तरक़ीब ढूँढ़ निकाली। उनमें से एक ने चुपके से चील की बेटी का वह गाना सुन लिया जिससे वह चील माँ को बुलाती थी। फिर उसने नई सौत की आवाज़ की नक़ल करते हुए वह गाना गाया और चील को गाय के छप्पर में बुलाया। ईष्यालु सौतनों ने उसे झाड़ू से पीट-पीटकर मार डाला और गोबर के ढेर में दफ़ना दिया। चील की बेटी को इसकी कानोंकान ख़बर नहीं हुई। चील माँ की मौत के बाद उसने उसे बुलाने के लिए गाना गाया, पर वह नहीं आई। चील की बेटी का माथा ठनका। ज़रूर कहीं कुछ गड़बड़ है। एक दिन उसे पता चला कि सौतनों ने उसकी चील माँ को मार डाला। उसकी व्यथा का पार रहा।

एक दिन सौदागर को लेन-देन के लिए गाँव से बाहर जाना पड़ा। जाते समय अपनी चहेती नई पत्नी की ज़िम्मेदारी वह बाक़ी पत्नियों को सौंप गया।

सौदागर के जाने के कुछ सप्ताह उपरांत एक परदेशी व्यापारी ने गाँव में दुकान लगाई। वह कंघे, काच, हिंगुल, इत्र, तेल वग़ैरा औरतों के काम की चीज़ें बेचता था। सौदागर की सात बड़ी पलियों ने उससे ढेरों चीज़ें ख़रीदीं और बदले में उसे ऐसी सुंदर लड़की देने को कहा जैसी उसने सपने में भी नहीं देखी होगी। उन्होंने उसकी सुंदरता का ऐसा मोहक वर्णन किया कि व्यापारी अदला-बदली के लिए राज़ी हो गया। सौतनों ने चील की बेटी को कई बार कहा कि वह भी उनके साथ चले और अपने लिए कुछ ले ले। उसने जवाब दिया, “बहनो, मुझे कुछ नहीं चाहिए। वैसे भी वो मुझे घर छोड़ने के लिए मना कर गए हैं।” पर वे आसानी से हार मानने वाली नहीं थीं। वे उसे फुसलाती रहीं, उसकी ख़ुशामद करती रहीं जब तक कि उसने हथियार नहीं डाल दिए। व्यापारी का माल दिखाने के बहाने वे उसे नाव पर ले गईं। चील की बेटी तरह-तरह की चीज़ें देखने में मग्न हो गई। मौक़ा देखकर सौतनें नाव से उतर गईं और व्यापारी को इशारा किया। इशारा मिलते ही नाविकों ने घाट से बंधी रस्सियाँ काट दीं। नाव चल पड़ी।

व्यापारी उसे अपने घर ले गया। उसका घर नदी के किनारे पर था। चील की बेटी को दिन भर धूप में सूखती मछलियों की रखवाली करनी पड़ती थी। रखवाली करते हुए वह दुखी मन से गाती थी—

कुम्हारिन के पेट से जन्म लिया मैंने

उसने किया मुझे नदी के हवाले

पाला-पोसा मुझे मेरी चील माँ ने

ब्याह हुआ मेरा सौदागर के बेटे से

मछेरे को बेचा मुझे मेरी सात सौतनों ने

मछलियों की रखवाली करूँ मैं तपती धूप में

एक दिन उसका सौदागर पति उधर से गुज़रा। वह लंबी यात्रा के बाद घर लौट रहा था। उसने वह गीत सुना। गाने वाली की आवाज़ उसे जानी-पहचानी-सी लगी। उसने मल्लाहों से नाव रोकने को कहा। यह देखकर उसकी ख़ुशी का पार रहा कि गीत गाने वाली उसकी चहेती पत्नी है। नाव से उतरकर वह उसके पास गया और पूछा कि वह यहाँ कैसे आई। चील की बेटी ने उसे सारी बात बताई। सौदागर उसे नाव में बिठाकर घर ले गया। घर नज़दीक आने पर सौदागर ने उसे लकड़ी की पेटी में छुपा दिया। पेटी में उसने कुछ छेद कर दिए थे ताकि उसका दम घुट जाए। उस पेटी को उसने दूसरी पेटियों के साथ अपने कमरे में रखवा दिया। फिर उसने अपनी सात पत्नियों से उनकी नई सौत के बारे में पूछा। सातों ने एक सुर में जवाब दिया कि उसके जाते ही वह मायके चली गई थी और अब तक नहीं लौटी। सौदागर ने कहा, मुझे डर है कि तुमने उसके साथ कुछ किया है। तुम सच कह रही हो या झूठ इसके लिए तुम्हें परीक्षा देनी होगी।”

नौकरों को उसने गहरा गड्ढा खोदने का आदेश दिया। गड्ढा ख़ुद गया तो उसने उसमें काँटे डलवाए, गड्ढे के आर-पार धागा बँधवाया और सातों बड़ी पलियों को बारी-बारी से धागे पर चलने का आदेश दिया। कहा, “तुम बेक़सूर हो तो तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा। लेकिन अगर तुम क़सूरवार हुईं तो गड्ढे में गिरकर मर जाओगी।”

उन्होंने बहुत आगा-पीछा किया, पर सौदागर टस से मस नहीं हुआ। परीक्षा देने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं था। बारी-बारी से उन्होंने धागे पर चलकर गड्ढा पार करने की कोशिश की। हर बार धागा टूट जाता। उसकी जगह नया धागा बाँधा जाता। यों उनमें से छह सौतनें गड्ढे में गिर गईं। केवल सातवीं सौतन गड्ढे को पार करने में सफल हुई। इससे यह ज़ाहिर हुआ कि छहों की क़रतूत में वह शामिल नहीं थी। सचमुच, वह उस वक़्त रसोई के काम में व्यस्त थी और उसने चील की बेटी को व्यापारी की नाव में पहुँचाने में कोई हिस्सा नहीं लिया था। उसने गड्ढे को सात बार पार किया फिर भी धागा नहीं टूटा।

सौदागर ने छह पलियों को गड्ढे में ज़िंदा दफ़ना दिया। सातवीं पत्नी और चील की बेटी के साथ उसने सुख-शांति से जीवन बिताया।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारत की लोक कथाएँ (पृष्ठ 110)
  • संपादक : ए. के. रामानुजन
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2001

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