विद्या के दो क्षेत्र

vidha ke do chitra

बालकृष्ण भट्ट

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विद्या के दो क्षेत्र

बालकृष्ण भट्ट

और अधिकबालकृष्ण भट्ट

    साहित्य और विज्ञान दोनों मानो विद्या के दो नेत्र हैं। जो साहित्य में प्रवीण है और विज्ञान नहीं जानता अथवा विज्ञान में पूर्ण पंडित है और साहित्य नहीं जानता, वह मानो एक आँख का काना है और जो दोनों में से एक भी नहीं जानता, वह अंधा है। विद्या 'विद्' धातु से बना है, जिसका अर्थ ज्ञान है और नेत्र 'नी' धातु से है, जिसके मानी ले जाने वाले के हैं। साहित्य और विज्ञान ये दोनों मनुष्य को ज्ञान की ओर ले जाने वाले हैं। ज्ञान से मतलब यहाँ घट-पट आदि लौकिक पदार्थों को जान लेने से नहीं है—वरन् इस स्थावर, जंगम जगत् का आदि कारण क्या और कौन है तथा अखंड ऐश्वर्यवान् उस सच्चिदानंद सर्वगत सर्वतः परिपूर्ण का इस अनेक खंड में विभक्त दुःखौघ व्याप्त, अचिर, स्थाई, मरु-मरीचिका सद्दश मिथ्या जगत् से क्या और कैसा संबंध है—इसका जानना ज्ञान कहा जाएगा। साहित्य की हमारे यहाँ कभी कमी नहीं रही। संस्कृत का साहित्य सदा से सर्वांग पूर्ण था। कहीं पर किसी अंश में किसी तरह की कमी इसमें नहीं पाई गई। आदि में वेद का साहित्य सर्वांग पूर्ण था। भाषा का गौरव जिन-जिन बातों में गिना जाता है, वे सब उसमें पाई जाती हैं। उसी वेद की इबारत का अनुकरण करते हुए ऋषियों ने सूत्रों की कल्पना की। छहों दर्शन, व्याकरण, कल्प, निरुक्त तथा और और विषय सूत्र के आकार में पाए जाते हैं जिनमें साहित्य के सिवाय अनेक वैज्ञानिक विषयों का भी सूत्रपात किया गया है। प्रत्येक विषय पर ऋषियों के सूत्र पाए जाते हैं। जिस पर ऋषियों का सूत्र नहीं है उसका प्रमाण नहीं लिया जाता। मुहूर्त्त ग्रंथों पर ऋषियों का ग्रंथ नहीं है। इससे मालूम होता है कि अपनी दूकानदारी क़ायम रखने को ब्राह्मणों ने मुहूर्त्तों की कल्पना कर ली है। नहीं तो क्या कारण कि कामशास्त्र ऐसे असत् शास्त्र पर तो वात्सायन का सूत्र हो पर मुहूर्त्तों के संबंध में आर्ष प्रमाण कुछ भी हो। इससे सिद्ध होता है कि मुहूर्त्तों की कल्पना हाल की है और निरी दूकानदारी है। जब हिंदुस्थान ग़ुलामी की आदतों में पड़ गया और निहायत गिर गया, मूर्ख प्रजा को मुट्ठी में करने के लिए ब्राह्मणों ने तिथि, वार, नक्षत्र, योग करण के द्वारा पंचांग क़ायम कर मुहर्त्तों की कल्पना की। बिना ब्राह्मण के काम चले इसलिए क़दम-क़दम पर साइत और मुहर्त्त लोग विचरवाने लगे। यहाँ तक कि एक पाँव रख दूसरा पाँव बिना साइत मुहर्त्त के रखेंगे, जो इस बात का मानो सबूत है कि हम लोगों में कहाँ तक मानसिक बल का अभाव है।

    उपरांत उन्हीं सूत्रों की वृत्ति और भाष्य बने, जिससे उन सूत्रों के अर्थ और तात्पर्य विशद किए गए। कुमारिल, वाचस्पति, सायन, माधव आदि बड़े-बड़े दार्शनिक पंडित हुए। उस समय वेद की भाषा से अलग एक नई तरह की भाषा का प्रादुर्भाव हुआ। वेद तथा ऋषियों के बनाए ग्रंथ, जिन्हें हम आर्ष कहेंगे, यद्यपि यवनों के उपद्रव के समय बहुत से उनमें लुप्त हो गए, फिर भी उनमें के बचे बचाए मुद्रांकित करा चिरस्थाई कर दिए गए हैं। इससे निश्चय होता है कि संस्कृत-साहित्य इतना अगाध है कि उसका थहाना अथवा इस साहित्य-महोदधि के पार जाने के लिए सौ वर्ष की ज़िंदगी भी काफ़ी नहीं है। योगी या कोई देवी शक्ति संपन्न की तो बात ही निराली है। साधारण मनुष्य का काम नहीं है कि उसके समस्त साहित्य को पीकर बैठ रहे। जिस समय कुमारिल आदि दार्शनिक हुए; लगभग उसी समय के आगे या पीछे प्रत्येक विषय के प्रतिभाशाली अनेक विद्वान् हुए। कैयट, वामन, जयादित्य आदि कई प्रसिद्ध वैयाकरण; आर्यभट्ट, वाराह-मिहिर आदि गणितज्ञ; कालिदास, भवभूति, श्रीहर्ष, वाण, मयूर, माघ, भारवि, दंडी आदि कवि; अपने-अपने विषय में अद्भुत प्रतिभावान हुए। कविता के संबंध में जगन्नाथ पंडितराज के उपरांत फिर कोई ऐसा कवि नहीं हुआ जो विशिष्ट कवियों की श्रेणी में गिना जाए। दीक्षित और नागेश से अधिक कोई वैयाकरण हुआ जो आज पुराने पंडितों की बराबरी का कहा जा सके। ऐसे ही गदाधर और जगदीश भट्टाचार्य के समकक्ष का कोई नैयायिक उनके उपरांत नहीं हुआ। आधुनिक ग्रंथकार और पंडितों ने आर्ष प्रणाली को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। इनके लेख का मुख्य उद्देश्य केवल वितंडावाद और खंडन-भंडन मात्र रह गया। सहज से सहज शब्दों में पदार्थ का निर्णय और तत्व का अवबोध जैसा उन ऋषियों की चातुरी का लक्ष्य था सो रहा। इसी से इस समय के अधिकांश पंडित जन्म भर पढ़-पढ़कर पचते हैं, पर तो सांसारिक व्यवहार में वे चतुर होते हैं और उन्हें वास्तविक तत्त्व ज्ञान ही होता है। यह बात शंकराचार्य के जन्म के उपरांत हमारे संस्कृत साहित्य में उपज खड़ी हुई। ऋषियों के लेख में वाद-विवाद से कोई सरोकार रख, केवल तत्त्व क्या है, इसी पर उनका लक्ष्य था। यदि उसी क्रम का अनुसरण हम बराबर किए जाते तो हमारी जाति में वैसी कमज़ोरी आती जैसी तत्त्वावबोध से बहिर्मुख होने के कारण हम में घुसी है। इधर मुसलमानों के आक्रमण आरंभ हुए, उधर हमारे पंडित खंडन-मंडन में लग आपस की फूट और ईर्ष्या, द्रोह तथा दलादली को बढ़ाते ही गए। इससे आधुनिक पंडितों के लेखों में मुल्की जोश का कहीं छुवाव तक नहीं हुआ। बहुत दिनों तक तो पंडितों की यह चेष्टा रही कि कैसे बौद्ध और जैनियों को परास्त और उनका नाश कर वैदिक धर्म को फिर से देश में स्थापित करें। वाचस्पति आदि ग्रंथकार तथा खंडनखाद्य आदि ग्रंथों का यही क्रम रहा। इसमें संदेह नहीं, इस समय संस्कृत की उन्नति बहुत हुई। इस नई प्रणाली के बहुत अच्छे कुसुमांजलि आदि ग्रंथ बने, जिनको लगाने या विचारने में दिमाग़ चक्कर में जाता है, पर उन पुस्तकों की पंक्ति हल नहीं होती। ऋषियों के ग्रंथ की पंक्ति तथा शब्द बड़े सहज हैं; पर अर्थ की गंभीरता उनमें इतनी भरी हुई है कि विद्या-रसिक को उनके हल होने पर बहुमूल्य रत्न हाथ लग जाता है और लड़का पैदा होने की ख़ुशी भी उस विनोद की ख़ुशी के मुक़ाबिले तुच्छ मालूम देती है। इसी से हम कई बार लिख चुके हैं कि आर्य जाति के विजित हो जाने पर हम नेता हैं, हम स्वच्छंद हैं—यह भाव हम लोगों में से उठ गया।

    संस्कृत कहाँ तक साहित्य से भरी पूरी है—सो हम दिखा चुके। साथ ही विज्ञान की भी झलक जहाँ-तहाँ आप ग्रंथों में अच्छी तरह पाई जाती है। रहे नवाविष्कृत बहुत से नए-नए विज्ञान, जिनमें भाप और बिजली की करामातों का भरपूर निदर्शन पाया जाता है। जिन पर ख़्याल करने से बहुत दूरदर्शी विद्वानों की भी बुद्धि चकरा उठती है, उनकी कमी अवश्य संस्कृत में माननी पड़ेगी। हमारे पूर्वज सर्वथा विज्ञान के ज्ञान से विमुख थे, यह तो कभी कहा जाएगा क्योंकि जहाँ-तहाँ विमान आदि शब्दों के प्रयोग से स्पष्ट प्रतीत होता है कि ऐसी कोई वस्तु अवश्य रही होगी; किंतु उनके बनाने की क्या रीति थी इसका विशेष वर्णन कहीं पर कुछ नहीं है। शतन्नी, अग्नि-अस्त्र, वायु-अस्त्र आदि अस्त्रों का प्रयोग पुराणों में पाया जाता है। वाल्मीकि ने जृम्भकास्त्र और व्यास ने ब्रह्मास्त्र को लिखा है। निश्चय ये दोनों कोई ऐसे शस्त्र थे जिन्हें वही चला सकता था जो उतना विज्ञान जानता हो। वाल्मीकि ने मेघनाद और व्यास ने शाल्व को इस विद्या में बड़ा प्रवीण लिखा है और जृम्भकास्त्र की भी बड़ी महिमा गाई है। निश्चय यह कोई ऐसा शस्त्र रहा जिसके चलाने पर हवा से उसका स्पर्श होने से उसमें कोई ऐसी बात पैदा हो जाती थी जिससे शत्रु के दलवाले मुग्ध और बेहोश हो जाते थे। इससे प्रकट है कि इस समय के रसायनिक विज्ञान से भी वे अनभिज्ञ थे। जब हमारे पहिले के ब्राह्मण ज्ञान से सुसंपन्न थे तब ज्ञान के इन दो नेत्रों में एक में वंचित रहे हों, ऐसा संभव नहीं। विज्ञान की इतनी उन्नति चाहे तब रही हो पर संपूर्णतया अभाव था, सो भी कभी माना जाएगा। विज्ञान के किस विभाग में हमारे पुराने आर्य हेठे रहे हैं तथा इनके वंशधर अब के लोग दिमाग़ी क़बूत में किसी जाति से कम हैं—यह बहुत अच्छी तरह परख लिया गया है और कई बार कसौटी से तय हो चुका है कि यह इनके परिष्कृत मस्तिष्क ही का सब है कि हिंदुस्तानी नौजवान तालीम के, हर एक हिस्से में इतनी कड़ाई होने पर भी फबकते आते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कोविद गद्य (पृष्ठ 12)
    • संपादक : श्री नारायण चतुर्वेदी
    • रचनाकार : बालकृष्ण भट्ट
    • प्रकाशन : रामनारायण लाल पब्लिशर और बुक

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