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श्रीमान का स्वागत (शिवशंभू के चिट्ठे और ख़त)

shriman ka svagat

बालमुकुंद गुप्त

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बालमुकुंद गुप्त

श्रीमान का स्वागत (शिवशंभू के चिट्ठे और ख़त)

बालमुकुंद गुप्त

और अधिकबालमुकुंद गुप्त

    जो अटल है, वह टल नहीं सकती। जो होनहार है, वह होकर रहती है। इसी से फिर दो वर्ष के लिए भारत के वायसरॉय और गवर्नर जनरल होकर लार्ड कर्ज़न आते है। बहुत से विघ्नों को हटाते और बाधाओं को भगाते फिर एक बार भारतभूमि में आपका पदार्पण होता है। इस शुभयात्रा के लिए वह गत नवंबर को सम्राट् एडवर्ड से भी विदा ले चुके है। दर्शन में अब अधिक विलंब नहीं है।

    इस समय भारतवासी यह सोच रहे हैं कि आप क्यों आते है और आप यह जानते भी हैं कि आप क्यों आते हैं। यदि भारतवासियों का बस चलता तो आपको आने देते और आपका बस चलता तो और भी कई सप्ताह पहले विराजते। पर दोनों ओर की बाग़ किसी और ही के हाथ में हैं। निरे बेबश भारतवासियों का कुछ बस नहीं है और बहुत बातों पर बस रखने वाले लार्ड कर्ज़न को भी बहुत बातों में बेबस होना पड़ता है। इसी से भारतवासियों को लार्ड कर्ज़न का आना देखना पड़ता है और उक्त श्रीमान को अपने चलने में विलंब देखना पड़ा। कवि कहता है—

    जो कुछ खुदा दिखाये, सो लाचार देखवा।

    अभी भारतवासियों को बहुत कुछ देखना है और लार्ड कर्ज़न को भी बहुत कुछ। श्रीमान को नए शासन काल के यह दो वर्ष निस्संदेह देखने की वस्तु होंगे। अभी से भारतवासियों की दृष्टियाँ सिमटकर उस ओर जा पड़ी हैं। यह ज़बरदस्त द्रष्टा लोग अब बहुत काल से केवल निर्लिप्त निराकार तटस्थ द्रष्टा की अवस्था में अतृप्त लोचन से देख रहे हैं और जाने कब तक देखे जावेंगे। अथक ऐसे हैं कि कितने ही तमाशे देख गए, पर दृष्टि नहीं हटाते हैं। उन्होंने पृथिवीराज, जयचंद की तबाही देखी, मुसलमानों की बादशाही देखी। अकबर, बीरबल, खानखाना और तानसेन देखे, शाहजहानी तख़्तताऊस और शाही जुलूस देखे। फिर वही तख़्त नादिर को उठाकर ले जाते देखा। शिवाजी और औरंगज़ेब देखे, क्लाइव हेस्टिंग्स से वीर अँग्रेज़ देखे। देखते-देखते बड़े शौक़ से लार्ड कर्ज़न का हाथियों का जुलूस और दिल्ली-दरबार देखा। अब गोरे पहलवान मिस्टर सेंडो का छाती पर कितने ही मन बोझ उठाना देखने को टूट पड़ते हैं। कोई दिखाने वाला चाहिए भारतवासी देखने को सदा प्रस्तुत हैं। इस गुण में वह मोंछ मरोड़कर कह सकते हैं कि संसार में कोई उनका सानी नहीं। लार्ड कर्ज़न भी अपनी शासित प्रजा का यह गुण जान गए थे, इसी से श्रीमान् ने लीलामय रूप धारण करके कितनी ही लीलाएँ दिखाई।

    इसी से लोग बहुत कुछ सोच विचार कर रहे हैं कि इन दो वर्षों में भारतप्रभु लार्ड कर्ज़न और क्या-क्या करेंगे। पिछले पाँच साल से अधिक समय में श्रीमान ने जो कुछ किया, उसमें भारतवासी इतना समझने लगे हैं कि श्रीमान की रुचि कैसी है और कितनी बातों को पसंद करते हैं। यदि वह चाहें तो फिर हाथियों का एक बड़ा भारी जुलूस निकलवा सकते हैं। पर उसकी वैसी कुछ ज़रूरत नहीं जान पड़ती। क्योंकि जो जुलूस वह दिल्ली में निकलवा चुके हैं, उसमें सबसे ऊँचे हाथी पर बैठ चुके हैं, उससे ऊँचा हाथी यदि सारी पृथ्वी में नहीं तो भारतवर्ष में तो और नहीं है। इसी से फिर किसी हाथी पर बैठने का श्रीमान को और क्या चाव हो सकता है? उससे ऊँचा हाथी और नहीं है। ऐरावत का केवल नाम है, देखा किसी ने नहीं है। मेमथ की हड्डियाँ किसी-किसी अजायबख़ाने में उसी भाँति आश्चर्य की दृष्टि से देखी जाती हैं, जैसे श्रीमान् के स्वदेश के अजायबख़ाने में कोई छोटा मोटा हाथी। बहुत लोग कह सकते हैं कि हाथी की छोटाई बड़ाई पर बात नहीं, जुलूस निकले तो फिर भी निकल सकता है। दिल्ली नहीं तो कहीं और सही। क्योंकि दिल्ली में आतशबाज़ी ख़ूब चल चुकी थी, कलकत्ते में फिर चलाई गई। दिल्ली में हाथियों की सवारी हो चुकने पर भी कलकत्ते में रोशनी और घोड़ागाड़ी का तार जमा था। कुछ लोग कहते हैं कि जिस काम को लार्ड कर्ज़न पकड़ते है, पूरा करके छोड़ते है। दिल्ली दरबार में कुछ बातों की कसर रह गई थी। उदयपुर के महाराणा तो हाथियों के जुलूस में साथ चल सके दरबार में हाज़िर होकर सलामी देने का मौक़ा उनको मिला। इसी प्रकार बड़ौदा नरेश हाथियों के जुलूस में शामिल थे। वह दरबार में भी आए तो बड़ी सीधी सादी पोशाक में। इतनी सीधी सादी में जितनी से आज कलकत्ते में फिरते हैं। वह ऐसा तुम तराक और ठाठ-बाठ का समय था कि स्वयं श्रीमान वायसरॉय को पतलून तक कारचोबी की पहनना और राजा महाराजों को काठ की तथा ड्यूक आफ़ कनाट को चाँदी की कुर्सी पर बिठाकर स्वयं सोने के सिंहासन पर बैठना पड़ा था। उस मौक़े पर बड़ौदा नरेश का इतनी सफ़ाई और सादगी से निकल जाना एक नई आन था। इसके सिवा उन्होंने झुक के सलाम नहीं किया था, बड़ी सादगी से हाथ मिलाकर चल दिए थे। यह कई एक कसरें ऐसी हैं, जिनके मिटाने को फिर दरबार हो सकता है। फिर हाथियों का जुलूस निकल सकता है।

    इन लोगों के विचार में कलाम नहीं। पर समय कम है, काम बहुत होंगे। इसके सिवा कई राजा महाराजा पहले दरबार ही में ख़र्च से इतने दब चुके हैं कि श्रीमान् लार्ड कर्ज़न के बाद यदि दो वायसरॉय और आवें और पाँच-पाँच की जगह सात-सात साल तक शासन करें, तब तक भी उनका सिर उठाना कठिन है। इससे दरबार या हाथियों के जुलूस की फिर आशा रखना व्यर्थ है। पर सुना है कि अबके विद्या का उद्धार श्रीमान् ज़रूर करेंगे। उपकार का बदला देना महत् पुरुषों का काम है। विद्या ने आपको धनी किया है, इससे आप विद्या को धनी किया चाहते हैं। इसी से कंगालों से छीनकर आप धनियों को विद्या देना चाहते हैं। इससे विद्या का वह कष्ट मिट जावेगा जो उसे कंगाल को धनी बनाने में होता है। नींव पड़ चुकी है, नमूना कायम होने में देर नहीं। अब तक ग़रीब पढ़ते थे, इससे धनियों की निंदा होती थी कि वह पढ़ते नहीं। अब ग़रीब पढ़ सकेंगे, इससे धनी पढ़े पढ़े उनकी निंदा होगी। इस तरह लार्ड कर्ज़न की कृपा उन्हें बे पढ़े भी शिक्षित कर देगी।

    और कई काम हैं, कई कमीशनों के काम का फ़ैसला करना है, कितनी ही मिशनों की कारवाई का नतीज़ा देखना है। काबुल है, काश्मीर है, काबुल में रेल चल सकती है, काश्मीर में अँग्रेज़ी बस्ती बस सकती है। चाय के प्रचार की भाँति मोटरगाड़ी के प्रचार की इस देश में बहुत ज़रूरत है। बंगदेश का पार्टीशन भी एक बहुत ज़रूरी काम है। सबसे ज़रूरी काम विक्टोरिया मिमोरियल हाल है। सन् 1858 ई. की घोषणा अब भारतवासियों को अधिक स्मरण रखने की ज़रूरत पड़ेगी। श्रीमान् स्मृति मंदिर बनवाकर स्वर्गीया महारानी विक्टोरिया का ऐसा स्मारक बनवा देंगे, जिसको देखते ही लोग जान जावेंगे कि महारानी वह थीं जिनका यह स्मारक है।

    बहुत बातें हैं। सबको भारतवासी अपने छोटे दिमाग़ों में नहीं ला सकते। कौन जानता है कि श्रीमान् लार्ड कर्ज़न के दिमाग़ में कैसे-कैसे आली ख़्याल भरे हुए हैं। आपने स्वयं फरमाया था कि बहुत बातों में हिंदुस्तानी अँग्रेज़ों का मुक़ाबिला नहीं कर सकते। फिर लार्ड कर्ज़न तो इंग्लैंड के रत्न हैं। उनके दिमाग़ की बराबरी कर गुस्ताख़ी करने की यहाँ के लोगों को यह बूढ़ा भंगड़ कभी सलाह नहीं दे सकता। श्रीमान् कैसे आली दिमाग़ शासक हैं, यह बात उनके उन लगातार कई व्याख्यानों से टपकी पड़ती हैं, जो श्रीमान ने विलायत में दिए थे और जिनमें विलायतवासियों को यह समझाने की चेष्टा की थी कि हिंदुस्तान क्या वस्तु है? आपने साफ़ दिखा दिया था कि विलायतवासी यह नहीं समझ सकते कि हिंदुस्तान क्या है। हिंदुस्तान को श्रीमान् स्वयं ही समझे हैं। विलायत वाले समझते तो क्या समझते? फिर कैसे समझा सकते कि वह किस उच्च श्रेणी के शासक हैं? यदि कोई ऐसा उपाय निकल सकता, जिससे वह एक बार भारत को विलायत तक खींच ले जा सकते तो विलायत वालों को समझा सकते कि भारत क्या है और श्रीमान का शासन क्या? आश्चर्य नहीं, भविष्य में ऐसा कुछ उपाय निकल आवे। क्योंकि विज्ञान अभी बहुत कुछ करेगा। भारतवासी ज़रा भय करें, उन्हें लार्ड कर्ज़न के शासन में कुछ करना पड़ेगा। आनंद ही आनंद है। चैन से भंग पियो और मौज उड़ाओ। नज़ीर ख़ूब कह गया है—

    कुंडी के नकारे पे खुतके का लगा डंका।

    नित भंग पीके प्यारे दिन रात बजा डंका॥

    पर एक प्याला इस बूढ़े ब्राह्मण को देना भूल जाना।

    'भारतमित्र', 26 नवंबर, 1904 ई.

    स्रोत :
    • पुस्तक : बालमुकुंद गुप्त ग्रंथावली (पृष्ठ 96)
    • संपादक : नत्थन सिंह
    • रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
    • प्रकाशन : हरियाणा साहित्य अकादमी
    • संस्करण : 2008

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