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सेठ खेमराज श्रीकृष्णदास

seth khemraj shrikrishndas

महावीर प्रसाद द्विवेदी

अन्य

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महावीर प्रसाद द्विवेदी

सेठ खेमराज श्रीकृष्णदास

महावीर प्रसाद द्विवेदी

और अधिकमहावीर प्रसाद द्विवेदी

    रोचक तथ्य

    सितंबर, 1920 की 'सरस्वती' में प्रकाशित। असंकलित।

    बंबई के प्रसिद्ध व्यवसायी सेठ खेमराज श्रीकृष्णदास का गत 30 जुलाई की, 64 वर्ष की अवस्था में देहावसान हो गया। हिंदी और संस्कृत के धार्मिक ग्रंथों का प्रकाशन करके आपने अक्षय कीर्ति प्राप्त की। हिंदी भाषा-भाषी भी तो आपके सदैव उपकृत रहेंगे। आपके ही हिंदी-प्रेम से हिंदी के प्राचीन कवियों के ग्रंथ अब सुलभ हो गए हैं। पुराण, धर्मशास्त्र, काव्य, वैद्यक आदि विषयों के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध संस्कृती-ग्रंथों के हिंदी में अनुवाद कराकर आपने हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि की और संस्कृत से लोगों के लिए उन ग्रंथों का ज्ञान सुलभ कर दिया। 'श्रीवेंकटेश्वर समाचार-पत्र' निकाल कर आपने लोगों में सार्वजनिक ज्ञान का प्रचार-द्वार उन्मुक्त कर दिया। इसके सिवा आपसे आश्रय पाकर कितने ही हिंदी के लेखकों ने हिंदी की अच्छी सेवा की। आपकी मृत्यु से हिंदी भाषा का एक बड़ा सहारा ही चला गया। यह जानकर किस हिंदी प्रेमी को दुख होगा?

    आपका जन्म संवत् 1913 में हुआ था। अल्यावस्था में ही आप अपने भाई सेठ गंगाविष्णु जी के पास रतलाम चले आए। उस समय सेठ गंगाविष्णु जी विरक्त होकर संसार छोड़ देना चाहते थे पर एक महात्मा के उपदेश से आपने अपने भाई सेठ खेमराज को बुलाकर बंबई में पुस्तक बेचने का व्यवसाय शुरू किया। सेठ सेमराज जी की अवस्था थी तो छोटी, पर उनमें वे सब गुण विद्यमान थे—जिनसे मनुष्य को व्यवसाय में सफलता मिलती है। सबसे पहली बात तो यह थी कि आप बड़े मिष्टभाषी और बड़े सच्चे भी थे। पुस्तक बेचने के लिए पहले आप पूर्व की ओर दरभंगा तक जाते थे तो उत्तर में पंजाब तक पहुँच जाते थे। उस समय भी आपकी आमदनी का तृतीयांश गो-ब्राह्मण के निमित्त खर्च हो जाता था। धन्य आपकी धर्मनिष्ठता और धन्य आपका औदार्य। शीघ्र ही आपकी उन्नति हुई और थोड़े ही दिनों के बाद आपने एक सीधी प्रेस ख़रीद लिया। उसी में आप हिंदी और संस्कृत के ग्रंथ छपाने लगे। उस समय छापेख़ानों का प्रचार अच्छी तरह नहीं हुआ था। हिंदी के तो एक ही दो छापेख़ाने थे और उनमें भी सिर्फ़ क़िस्से-कहानी ही की किताबें अधिकतर छपती थीं। सेठ सेमराज जी ने ही सबसे पहले हिंदू धर्म के अच्छे अभी ग्रंथों को छापकर सस्ते दामों में निकालना शुरू किया। इसी के लिए बंबई में श्रीवेंकटेश्वर प्रेम खोला गया। कुछ वर्षों के बाद सेठ गंगाविष्णु जी ने श्रीवेंकटेश्वर प्रेस खेमराज जी को सौंप कर कल्याण में एक दूसरा प्रेस—लक्ष्मीवेंकटेश्वर प्रेस स्थापित किया। ये दोनों छापेख़ाने अच्छी तरह चलने लगे। फल यह हुआ कि जो कभी एक साधारण पुस्तक विक्रेता थे वे अपने अध्यवसाय और परिश्रम से एक विशाल संपत्ति के स्वामी हो गए।

    सेठ खेमराजजी बड़े धर्मनिष्ठ थे; आदर्श हिंदू थे आप श्रीवैष्णव थे। उदारचेता तो इतने थे कि आपने लाखों रुपए दान-धर्म में ख़र्च कर डाले। आपने धर्मशाला बनवाई, सदावर्त खोला, तालाब और कुएँ खुदवाए और ऐसे-ऐसे कई काम किए जिनसे आप बहुत ही लोकप्रिय हो गए। बंबई में मारवाड़ी-विद्यालय आपके ही प्रयत्न से स्थापित हुआ है।

    आपका सभी सम्मान करते थे। सरकार आपकी जितनी प्रतिष्ठा करती थी उतनी प्रजा भी करती थी। राजा-महाराजा भी आपका सदैव आदर करते थे। भारत-धर्म-महामंडल ने आपको यथार्थ में ही धर्मभूषण कहा है। इससे यह उपमा सार्थक हो गई है।

    आपकी चार संतति जीवित हैं। दो पुत्र सेठ रंगनाथ और सेठ श्रीनिवास—और दो विवाहित कन्यायें। आपकी धर्मपत्नी का देहांत दो वर्ष पहले ही हो चुका। भगवान् आपके पुत्रों को चिरंजीव करे जिससे वे भी देश सेवा और साहित्य सेवा करके आप ही के समान यशोभागी हों।

    जो लोग पुस्तकें बेचना छोटा काम समझते हैं उन्हें सेट खेमराज जी के चरित्र से शिक्षा लेनी चाहिए। बात यह है कि काम कोई भी छोटा नहीं। काम करने वालों ही की बुद्धि को छोटी या थोड़ी समझना चाहिए। मनुष्य यदि बुद्धिमान् और व्यवसाय-कुशल है तो वह सेठजी ही की तरह परिश्रम, सत्यता, उदार व्यवहार और उत्साहपूर्ण कार्य-संचालन से रंक से राव हो सकता है। संपत्ति-प्राप्ति के द्वारा इस लोक में तो यश और परलोक में काम आने के लिए धर्म-संचय भी कर सकता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड-5 (पृष्ठ 441)
    • संपादक : भारत यायावर
    • रचनाकार : महावीरप्रसाद द्विवेदी
    • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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