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रस

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जयशंकर प्रसाद

अन्य

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और अधिकजयशंकर प्रसाद

    जब काव्यमय श्रुतियों का काल समाप्त हो गया और धर्म ने अपना स्वरूप अर्थात् शास्त्र और स्मृति बनाने का उपक्रम किया—जो केवल तर्क पर प्रतिष्ठित था—तब मनु को भी कहना पड़ा—यस्तर्केणानुसंधत्ते धर्मं वेदनेतरः।

    परंतु आत्मा को संकल्पात्मक अनुभूति, जो मानव-ज्ञान की अकृत्रिम धारा थी, प्रवाहित रही। काव्य की धारा लोकपक्ष से मिलकर अपनी आनंद-साधना में लगी रही। यद्यपि शास्त्रों की परंपरा ने आध्यात्मिक विचार का महत्त्व उससे छीन लेने का प्रयत्न किया, फिर भी अपने निषेधों की भयानकता के कारण, हृदय के समीप होकर वह अपने शासन का रूप ही प्रकट कर सकी। अनुभूतियाँ काव्य परंपरा में अभिव्यक्त होती रहीं। 'जगृह पाठ्याम् ऋग्वेदत्' (भरत) से यह स्पष्ट होता है कि सर्वसाधारण के लिए वेदों के आधार पर काव्यों का पंचम वेद की तरह प्रचार हुआ। भारतीय वाङ्मय में नाटकों को ही सबसे पहले काव्य कहा गया।

    काव्यंतावन्मुख्यतो दशरूपात्मकमेव (अभिनवगुप्त)

    शैवागमों के ‘क्रीड़ात्वेनखिलम् जगत्’ वाले सिद्धांत का नाट्यशास्त्र में व्यावहारिक प्रयोग है।

    इन्हीं नाट्योपयोगी काव्यों में आत्मा की अनुभूति रस के रूप में प्रतिष्ठित हुई। अभिनवगुप्त ने कहा है ‘आस्वादनात्माऽनुभवो रसः कव्यार्थमुच्यते।’ नाटकों में भरत के मत से चार ही मूल रस हैं—शृंगार, रौद्र, वीर और वीभत्स। इन से अन्य चार रसों की उत्पत्ति मानी गई। श्रृंगार से हास्य, वीर से अद्भुत, रौद्र से करुण और वीभत्स से भयानक। इन चित्तवृत्तियों में आत्मानुभूति का विलास आरंभिक विवेचकों को रमणीय और उत्कर्षमय मालूम हुआ। नाटकों में वाणी के छंद, गद्य और संगीत, इन तीनों प्रकारों का समावेश था। इस तरह आभ्यंतर और बाह्य दोनों में नाट्य संघटना पूर्ण हुई। रसात्मक अनुभूति आनंद मात्रा से संपन्न थी और तब नाटकों में रस का आवश्यक प्रयोग माना गया। किंतु रस संबंधी भरत मुनि के सूत्र ने भावी आलोचकों के लिए अद्भुत सामग्री उपस्थित की। ‘विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः’ की विभिन्न व्याख्याएँ होने लगीं। स्वयं भरत ने लिखा है तथा ‘विभावानुभावव्यभिचारिपरिवृतः स्थायीभावो रसनाम लभते’ अर्थात् प्रमुख स्थायी मनोवृत्तियाँ विभाव, अनुभाव, व्यभिचारियों के संयोग से रसत्व को प्राप्त होती हैं। आनंद के अनुयायियों ने धार्मिक बुद्धिवादियों से अलग सर्वसाधारण में आनंद का प्रचार करने के लिए नाट्य-रसों की उद्भावना की थी। हाँ, भारत में नाट्य प्रयोग केवल कुतूहल शांति के लिए ही नहीं था। अभिनव भारती में कहा है—

    “तदनेन पारिमार्थिकम् प्रयोजनमुक्तमिति व्याख्यानम् सहृदय दर्पणे प्रत्यग्रहीत् यदाह—नमस्त्रैलोक्यनिर्माणकवये शंभवे यतः! प्रतिक्षणम् जगन्नाट्यप्रयोगरसिको जनः! इति एवं नाट्यशास्त्रप्रवचनप्रयोजनम्।” नाट्य शास्त्र का प्रयोजन नटराज शंकर के जगन्नाटक का अनुकरण करने के लिए पारमार्थिक दृष्टि से किया गया था। स्वयं भरत मुनि ने भी नाट्य प्रयोग को एक यज्ञ के स्वरूप में ही माना था।

    इज्यया चानया नित्यं प्रीयंतां देवता इति (4 अध्याय)

    इधर विवेक या बुद्धिवादियों की वाङ्मयी धारा, दर्शनों और कर्म पद्धतियों तथा धर्म शास्त्रों का प्रचार करके भी, जनता के समीप हो रही थी। उन्होंने पौराणिक कथानकों के द्वारा वर्णनात्मक उपदेश करना आरंभ किया। उनके लिए भी साहित्यिक व्याख्या की आवश्यकता हुई। उन्हें केवल अपनी अलंकारमयी सूक्तियों पर ही गर्व था; इसलिए प्राचीन रसवाद के विरोध में उन्होंने अलंकार मत खड़ा किया, जिस में रीति और वक्रोक्ति इत्यादि का भी समावेश था।

    इन लोगों के पास रस जैसी कोई आभ्यंतरिक वस्तु थी। अपनी साधारण धार्मिक कथाओं में वे काव्य का रंग चढ़ाकर सूक्ति, वाग्विकल्प और वक्रोक्ति के द्वारा जनता को आकृष्ट करने में लगे रहे। शिलालिन, कृशाश्व और भरत आदि के ग्रंथ अपनी आलोचना और निर्माण शैली की व्याख्या के द्वारा रस के आधार थे। अलंकार की आलोचना और विवेचना के लिए भी उसी तरह के प्रयत्न हुए। भामह ने पहले काव्य शरीर का निर्देश किया और अर्थालंकार तथा शब्दालंकार का विवेचन किया। इनके अनुयायी दंडी ने रीति को प्रधानता दी। सौंदर्य ग्रहण की पद्धति समझने के लिए वाग्विकल्पों के चारुत्व का अनुशीलन होने लगा। अलंकार का महत्त्व बढ़ा; क्योंकि वे काव्य की शोभा मान लिए गए थे। पिछले काल में तो वे कनककुंडल की तरह आभूषण ही समझ लिए गए काव्यालंकार सूत्रों में ये आलोचक कुछ और गहरे उतरे और उन्होंने अलंकारों की व्याख्या सौंदर्य-बोध के आधार पर करने का प्रयत्न किया।

    काव्यम् ग्राह्यमलंकारात, सौंदर्यमलंकारः— इत्यादि से सौंदर्य की प्रतिष्ठा अलंकार में हुई। काव्य के सौंदर्य-बोध का आधार शब्द-विन्यास-कौशल ही रहा। इसी को वे रीति कहते थे। ‘विशिष्ट पद रचना रीतिः’ से यह स्पष्ट है। रीति, अलंकार तथा वक्रोक्ति श्रव्य काव्यों के संबंध में विचार करने वालों के निर्माण थे; इसलिए आरंभ में इन लोगों ने रस को भी एक तरह का अलंकार ही माना और उसे रसवद् अलंकार कहते थे। अलंकार मत के रीति ग्रंथों के जितने लेखक हुए उन्होंने शब्दों को ही प्रधान मानकर अपने काव्य लक्षण बनाए। ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्, रमणीयार्थ प्रतिपादकं शब्दः काव्यम्’ इत्यादि।

    इन परिभाषाओं में शब्द और वाक्य ही कार्यरूप माने गए हैं। पंडितराज ने तो ‘तददोषौ शब्दार्थौ’ में से अर्थ का बहिष्कार करने का भी आग्रह किया है। शब्द मात्र ही काव्य है, शब्द और अर्थ दोनों नहीं। भले ही उस में से रमणीयार्थ निकलना आवश्यक हो, पर काव्य है शब्द ही। इन शब्द-विन्यास-कौशल का समर्थन करने वालों को भी रस की आवश्यकता प्रतीत हुई; क्योंकि रस-जैसी वस्तु इन के काव्य-शरीर की आत्मा बन सकती थी। 'शृङ्गारतिलक' में स्वीकार किया गया है कि—

    प्रायो नाट्यं प्रति प्रोक्ता भरतायैः रस स्थितिः

    यथा मति मयाप्येषा काव्ये प्रति निगद्यते।

    आलंकारिकों के काव्य शरीर या बाह्य वस्तु से साहित्यिक आलोचना पूर्ण नहीं हो सकती थी। कहा जाता है कि 'अभिव्यंजनावाद अनुभूति या प्रभाव का विचार छोड़कर वाक्वैचित्र्य को पकड़कर चला; पर वाक्वैचित्र्य का दृश्य गंभीर वृत्तियों से कोई संबंध नहीं। वह केवल कुतूहल उत्पन्न करता है।' तब तो यह मानना पड़ेगा कि विशिष्ट पद रचना, रीति और वक्रोक्ति को प्रधानता देने वाले अलंकारवादी भामह, दंडी, वामन और उद्भट आदि अभिव्यंजनावादी ही थे।

    साहित्य में विकल्पात्मक मनन-धारा का प्रभाव इन्हीं अलंकारवादियों ने उत्पन्न किया तथा अपनी तर्क प्रणाली से आलोचना शास्त्र की स्थापना की। किंतु संकल्पात्मक अनुभूति की वस्तु रस का प्रलोभन, कदाचित् उन्हें अभिनवगुप्त की ओर से ही मिला उन्होंने रस के संबंध में ध्वन्यालोक की टीका में लिखा है:—

    ‘काव्येऽपि लोकनाट्यधर्मिस्थानीये स्वभावोक्तिवक्रोक्तिप्रकारद्वयेनालौकिक प्रसन्नमधुरौजस्विशब्द समप्यर्माण विभावादियोगादियमेव रस वार्ता। अस्तु वा नाट्या द्विचित्ररूपा रसप्रीतिः।’

    रस को अपनाकर भी इन बुद्धिवादी तार्किकों ने अपने पांडित्य के बल पर उसके संबंध में नए-नए वाद खड़े किए। रस किसे कहते हैं, उसकी व्यापार सीमा कहाँ तक है, वह व्यंग्य है कि वाच्य, इस तरह के बहुत से मतभेद उपस्थित हुए। दार्शनिक युक्तियाँ लगाई गईं। रस कार्य है कि अनुमेय, भोज्य है कि ज्ञाप्य—इन प्रश्नों पर रस का, काव्य और नाटक दोनों में समन्वय करने की दृष्टि से विचार होने लगा। क्योंकि इस काल में काव्य से स्पष्टतः श्रव्य काव्य का और नाटक से दृश्य का अर्थ किया जाने लगा था। किंतु सामाजिकों या अभिनेताओं में आस्वाद्य वस्तु रस के लिए भरत की व्यवस्था के अनुसार सात्विक, आंगिक, वाचिक और आहार्य्य इन चारों क्रियाओं की आवश्यकता थी। अलंकारवादियों के पास केवल वाचिक का ही बल था। फिर तो रस को श्रव्य काव्योपयोगी बनाने के लिए कई उपाय किए गए। उन्हीं में से एक उपाय आक्षेप भी है। आक्षेप के द्वारा विभाव, अनुभाव या संचारी में से एक भी अन्य दोनों को ग्रहण करने में समर्थ हो जाता है। रस के संबंध में विकल्पवादियों के ये आरोपित तर्क थे। आनंद परंपरा वाले शैवागमों की भावना में प्रकृत रस की सृष्टि सजीव थी। रस की अभेद और आनंदावाली व्याख्या हुई। भट्ट नायक ने साधारणीकरण का सिद्धांत प्रचारित किया, जिसके द्वारा नट सामाजिक तथा नायक की विशेषता नष्ट होकर, लोक सामान्य-प्रकाश-आनंदमय, आत्मचैतन्य की प्रतिष्ठा रस में हुई।

    रस और अलंकार दोनों सिद्धांतों में समझौता कराने के लिए ध्वनि को व्याख्या अलंकारसरणि व्यवस्थापक आनंदवर्द्धन ने इस तरह से की कि ध्वनि के भीतर ही रस और अलंकार दोनों गए। इन दोनों से भी जो साहित्यिक अभिव्यक्ति बची उसे वस्तु कहकर ध्वनि के अंतर्गत माना गया। काव्य की आत्मा ध्वनि को मानकर रस, अलंकार और वस्तु इन तीनों को ध्वनि का ही भेद समझने का उपक्रम हुआ। फिर भी आनंदवर्द्धन ने यह स्वीकार किया कि वस्तु और अलंकार से प्रधान रस ध्वनि ही है— प्रतीयमानस्य चान्यप्रभेददर्शनेपि रसभावमुखेनैवोपलक्षणम्, प्राधन्यात्। आनंदवर्द्धन ने रस ध्वनि को प्रधान माना; परंतु अभिनवगुप्त ने 'ध्वन्यालोक' की ही टीका में अपनी पांडित्यपूर्ण विवेचन शैली से यह सिद्ध किया कि काव्य की आत्मा रस ही है।—तेन रसमेव वस्तुत आत्मा वस्तलंकारध्वनिस्तु सर्वथा रसं प्रतिपय्यर्वस्यते (लोचन)।

    यहाँ पर यह स्मरण रखना होगा कि अलंकार व्यवस्थापक आनंदवर्द्धन ने श्रव्य काव्यों में भी रसों का उपयोग मान लिया था; परंतु आत्मा के रूप में ध्वनि को ही प्रधानता इस विचार से रखी कि अलंकार मत में रस जैसी नाट्य वस्तु सब से अधिक प्रमुख हो जाए। यह सिद्धांतों की लड़ाई थी। आनंदवर्द्धन ने रस की दृष्टि से विवेचना करते हुए महाभारत को शांत रस प्रधान और रामायण को करुण रस का प्रबंध माना। किंतु मुक्तकों में रस की निष्पत्ति कठिन देखकर उन्होंने यह भी कहा कि श्रव्य काव्य के अंतर्गत मुक्तक काव्यों में रस की निबंधना अधिक प्रयत्न करने पर ही कदाचित् संभव हो सकेगी।

    प्रबंधे मुक्तके वापि रसादीन् बद्धुमिच्छता।

    यत: कार्यः सुमतिना परिहारे विरोधिनां।

    अन्यथा त्व-य रसमयश्लोक एकोपि सन्यं संपद्यते।

    आनंदवर्द्धन भी काश्मीर के थे और उन्होंने वहाँ के आगमानुयायी आनंद सिद्धांत के रस को तार्किक अलंकार मत से संबद्ध किया किंतु माहेश्वराचार्य अभिनवगुप्त ने इन्हीं की व्याख्या करते हुए अभेदमय आनंद पथ वाले शैवाद्वैतवाद के अनुसार साहित्य में रस की व्याख्या की। नाटकों के स्वरूप तो उनके सिद्धांत और दार्शनिक पक्ष के अनुकूल ही थे। अभिनव गुप्त ने अपनी लोचन नाम की टीका में स्पष्ट ही लिखा है—

    तदुत्तीर्णत्त्वे तु सर्वम् परमेश्वराद्वयम् ब्रह्मेत्यस्मच्छाज्ञानुसरणेन विदितम् तंत्रलोक ग्रंथे विचारयेत्यास्ताम्।

    अभिनवगुप्त ने रस की व्याख्या में आनंद सिद्धांत की अभिनेय काव्य वाली परंपरा का पूर्ण उपयोग किया। शिवसूत्रों में लिखा है—नर्त्तक आत्मा, प्रेक्षकाणि इंद्रियाणि। इन सूत्रों में अभिनय को दार्शनिक उपमा के रूप में ग्रहण किया गया है। शैवाद्वैतवादियों ने श्रुतियों के आनंदवाद को नाट्य गोष्ठियों में प्रचलित रखा था; इसलिए उनके यहाँ रस का सांप्रदायिक प्रयोग होता था। विगलित भेद संस्कारमानंद रसप्रवाहमयमेव पश्यति (क्षेमराज) इस रस का पूर्ण चमत्कार समरसता में होता है। अभिनवगुप्त ने नाट्य रसों की व्याख्या में उसी अभेदमय आनंद रस को पल्लवित किया। भट्ट नायक ने साधारणीकरण से जिस सिद्धांत की पुष्टि की थी अभिनवगुप्त ने उसे अधिक स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि वासनात्मकतया स्थित रति आदि वृत्तियाँ ही साधारणीकरण द्वारा भेद विगलित हो जाने पर आनंद स्वरूप हो जाती हैं। उनका आस्वाद ब्रह्मास्वाद के तुल्य होता है। (परब्रह्मास्वाद सब्रह्मचारित्वम् वास्त्वस्यरसस्य) (लोचन) वासनात्मक रूप से स्थित रति आदि वृत्तियों में ब्रह्मास्वाद की कल्पना साहित्य में महान परिवर्तन लेकर उपस्थित हुई। रति आदि कई वृत्तियाँ स्थायी मानी जा चुकी थीं; किंतु आलोचक एक आत्मा की खोज में थे। रस को अपनाकर वे कुछ द्विविधा में पड़ गए थे। आनंदवादियों की यह व्याख्या उन सब शंकाओं का समाधान कर देती थी। उनके यहाँ कहा गया है ‘लोकानंद: समाधिसुखं’ (शिवसूत्र 18) क्षेमराज उसकी टीका में कहते हैं ‘प्रमातृपदविश्रांति अवधानांतश्चमत्कारमयो आनंद एतदेव अस्य समाधि सुखम्’। इस प्रमातृपद-विश्रांति में जिस चमत्कार या आनंद का लोकसंस्थ आनंद के नाम से संकेत किया गया है, वही रस के साधारणीकरण में प्रकाशानंदमय संविद् विश्रांति के रूप में नियोजित था। इन आलोचकों का यह सिद्धांत स्थिर हुआ कि चित्तवृत्तियों की आत्मानंद में तल्लीनता समाधि सुख ही है। साहित्य में भी इस दार्शनिक परिभाषा को मान लेने से चित्त की स्थायी वृत्तियों की बहुसंख्या का कोई विशेष अर्थ नहीं रह गया। सब वृत्तियों का ‘प्रमातृपद—अहम् में विश्रांति’ होना ही पर्याप्त था। अभिनव के आगमाचार्य गुरु उत्पल ने कहा है कि—प्रकाशस्यात्मविश्रांतिरहंभावो हि कीर्तितः।

    प्रकाश का यहाँ तात्पर्य है चैतन्य। यह चेतना जब आत्मा में ही विश्रांति पा जाए वही पूर्ण अहंभाव है। साधारणीकरण द्वारा आत्म-चैतन्य का रसानुभूति में, पूर्ण अहंपद में विश्रांति हो जाना आगमों की ही दार्शनिक सीमा है। साहित्यदर्पणकार की रस व्याख्या में उन्हीं लोगों की शब्दावली भी है—स्वत्वोद्रेकादखंडस्व प्रकाशानंद चिन्मयः। इत्यादि।

    यह रस बुद्धिवादियों के पास गया तो धीरे-धीरे स्पष्ट हो गया कि रस के मूल में चैतन्य की भिन्नता को अभेदमय करने का तत्व है। फिर तो चमत्कारा पर पर्याय अनुभव साक्षिक रस को पंडितराज जगन्नाथ ने आगमवादियों की ही तरह ‘रसो वै सः, रसं ह्येव लब्ध्वाऽनंदीभवति’ के प्रकाश में आनंद ब्रह्म ही मान लिया।

    संभवतः इसीलिए दुःखांत प्रबंधों का निषेध भी किया गया। क्योंकि विरह तो उनके लिए प्रत्यभिज्ञान का साधन, मिलन का द्वार था। चिर विरह की कल्पना आनंद में नहीं की जा सकती। शैवागमों के अनुयायी नाट्यों में इसी कल्पित विरह या आवरण का हटना ही प्रायः दिखलाया जाता रहा। अभिज्ञान शाकुंतल इसका सब से बड़ा उदाहरण है। बुद्धिवाद के अनन्य समर्थक व्यास की कृति महाभारत शांत रस के अनुकूल होने पर भी दुःखांत है। रामायण भी दुःखांत ही है।

    शैवागम के आनंद संप्रदाय के अनुयायी रसवादी, रस की दोनों सीमा श्रृंगार और शांत को स्पर्श करते थे। भरत ने कहा—

    भावा विकारा रत्याद्य: शांतस्तु प्रकृतिर्मतः

    विकारः प्रकृतेर्जातः पुनस्तत्रैव लीयते।

    यह शांतरस निस्तरंग महोदधिकल्प समरसता ही है। किंतु बुद्धि द्वारा सुख की खोज करने वाले संप्रदाय ने रसों में श्रृंगार को ही महत्त्व दिया और आगे चलकर शैवागमों के प्रकाश में साहित्य रस व्याख्या से संतुष्ट होकर, उन्होंने श्रृंगार का नाम मधुर रख लिया। कहना होगा कि उज्ज्वल नीलमणि का संप्रदाय बहुत कुछ विरहोन्मुख ही रहा, और भक्ति प्रधान भी। उन्होंने कहा है—

    मुख्यरसेषु पुरा यः संक्षेपेनोदितोरहस्यत्वात्,

    पृथगेद भक्तिरसराट सविस्तरेणोच्यते मधुरः।

    कदाचित् प्राचीन रसवादी रस की पूर्णता भक्ति में इसीलिए नहीं मानते थे कि उसमें द्वैत का भाव रहता था। उसमें रसाभास की ही कल्पना होती थी। आगमों में तो भक्ति भी अद्वैत मूला थी। उनके यहाँ द्वैत-प्रथा ‘तद्ज्ञान तुच्छास्वात् बंध मुच्यते’ के अनुसार द्वैत बंधन था। इस मधुर-संप्रदाय में जिस भक्ति का परिपाक रस के रूप में हुआ उसमें परकीया प्रेम का महत्त्व इसीलिए बढ़ा कि वे लोग दार्शनिक दृष्टि से तत्व को स्व से पर मानते थे। उज्ज्वल नीलमणिकार का कहना है—

    रागेणोल्लंघयन् धर्मम् परकीया बलार्थिना

    तदीय प्रेम वसति बुधैरुपपतिस्मृतः

    अत्रैव परमोत्कर्षः शृङ्गारस्य प्रतिष्ठितः।

    श्रृंगार का परम उत्कर्ष परकीया में मानने का यही दार्शनिक कारण है जीव और ईश की भिन्नता। हाँ, इस लक्षण में धर्म का उल्लंघन करने का भी संकेत है। विवेकवादी भागवत धर्म ने जब आगमों के अनुकरण में आनंद की योजना अपने संप्रदाय में की तो उसमें इस प्रेमा भक्ति के कारण श्रुति परंपरा के धार्मिक बंधनों को तोड़ने का भी प्रयोग आरंभ हुआ। उनके लिए परमतत्व की प्राप्ति सांसारिक परंपरा को छोड़ने से ही हो सकती थी। भागवत का वह प्रसिद्ध श्लोक इसके लिए प्रकाश स्तंभ बना—

    आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्याम्

    वृंदावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्

    या दुस्त्यर्ज स्वजनमाय्य्यर्पथं हित्वा

    भेजुर्मुकुंदपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्य्याम्।

    यह आर्य्यपथ छोड़ने की भावना स्पष्ट ही श्रुतिविरोध में थी। आनंद की योजना करने जाकर विवेकवाद के लिए दूसरा तो उपाय था और दार्शनिक समर्थन ही था। उन्होंने स्वीकार किया कि संसार में प्रचलित आर्य सिद्धांत सामान्य लोक आनंद तत्व से परे वह परम वस्तु है, जिसके लिए गोलोक में लास्य-लीला की योजना की गई। किंतु समग्र विश्व के साथ तादात्म्य वाली समरसता और आगमों के स्पंद शास्त्र के तांडवपूर्ण विश्व-नृत्य का पूर्ण भाव उस में था। इन लोगों के द्वारा जब रसों की दार्शनिक व्याख्या हुई, तो उसे प्रेम मूलक रहस्य में ही परिणत किया गया और यह रहस्य गोप्य भी माना गया। 'उज्ज्वल नीलमणि' की टीका में एक जगह स्पष्ट कहा गया है—अयमुज्ज्वल नीलमणिरेतन्मूल्यमजानद्भ्योऽनादर शंकया गोप्य एवेति।

    भारतेंदुजी ने अपनी चंद्रावली नाटिका में इसका संकेत किया है। इस रागात्मिका भक्ति के विकास में हास्य, करुण, वीभत्स इत्यादि प्राचीन रस गौण हो गए और दास्य सख्य और वात्सल्य आदि नए रसों की सृष्टि हुई। माधुर्य के नेतृत्व में द्वैत भावना से परिपुष्ट दास्य आदि रस प्रमुख बने। आनंद की भावना इन आधुनिक रसों में विशृंखल ही रही। हिंदी के आरंभ में श्रव्य काव्यों की प्रचुरता थी। उनमें भी रस की धारा अपने मूल उद्गम आनंद से अलग होकर केवल चिर विरहोन्सुख प्रेम के स्रोत में बही। यह बाढ़ वेगवती रही, किंतु उसमें रस की पूर्णता नहीं। तात्विक और व्यावहारिक दोनों दृष्टि से आत्मा की रस अनुभूति एकंगी-सी बन गई।

    मनोभावों या चित्तवृत्तियों का और उनके सब स्वरूपों का नाट्य रसों में आगमानुकूल व्याख्या से समन्वय हो गया था। अहम् की सब भावों में, सब अनुभूतियों में पूर्णता मान ली गई थी। वह बात पिछले काल के रस विवेचकों के द्वारा विशृंखल हो गई। हाँ, इतना हुआ कि सिद्धांत रूप से ध्वनि, रीति, वक्रोक्ति और अलंकार आदि सब मतों पर रस की सत्ता स्थापित हो गई। वास्तव में भारतीय दर्शन और साहित्य दोनों का समन्वय रस में हुआ था और यह साहित्यिक रस दार्शनिक रहस्यवाद से अनुप्राणित है।

    फिर भी रस अपने स्वरूप में नाट्यों की अपनी वस्तु थी। और उसी में आत्मा की मूल अनुभूति (संकल्पात्मक) पूर्णता को प्राप्त हुई थी। इसीलिए स्वीकार किया गया—काव्येषु नाटकं रम्यम्।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली (पृष्ठ 491)
    • संपादक : सत्यप्रकाश मिश्र
    • रचनाकार : जयशंकर प्रसाद
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2010

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