सच्चा निबंध किसे कहें?

sachcha nibandh kise kahen?

कन्हैयालाल सहल

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सच्चा निबंध किसे कहें?

कन्हैयालाल सहल

और अधिककन्हैयालाल सहल

    भोजन के बाद सोफा पर बैठकर सिगरेट के कश खींचते हुए जैसे कोई ज़िंदादिल मज़ेदार अनुभवी व्यक्ति अपने मनोरंजक अनुभव सुना रहा हो—कुछ-कुछ इसी तरह का है सच्चे निबंध का वातावरण। इसीलिए निबंध को ‘किसी मज़ेदार और बहुश्रुत व्यक्ति के भोजनोत्तर एकांत संभाषण’ की संज्ञा दी गई है। यह सच है कि प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत बातें सुनना हमें अच्छा नहीं लगता—एक नीरस व्यक्ति हमारी इच्छा के विरुद्ध जो स्पष्ट शब्दों—में चाहे व्यक्त हो रही हो किंतु जिसकी ध्वनि में संदेह की कहीं गुँजाइश नहीं, जब अपनी सर्वसामान्य रूखी-सूखी-थोथी बातें हम पर लादता चला जाता है उस समय ऐसी बेचैनी का अनुभव होता है जिसे भुक्तभोगी ही जानते हैं। उस समय इच्छा होती है कि किसी प्रकार यह अपना पचड़ा समाप्त करे और अपना रास्ता ले-हठात् हम मन ही मन कहने लगते हैं—भगवान् बचावे हमें ऐसे दोस्तों से! किंतु ठीक इसके विपरीत हमारी इच्छा होती है कि एक अनुभवी व्यक्ति हमें अपने दिलचस्प अनुभव सुनाता ही चला जाए—शर्त यह है कि सुनानेवाला व्यक्ति बहुश्रुत हो, उसके सुनाने का ढंग रोचक हो और वह व्यक्ति भी स्वयं मज़ेदार हो। ऐसा व्यक्ति हमें अपनी बातों से मुग्ध कर सकता है—हँसी-हँसी में वह इस प्रकार का ज्ञान और अनुभव बाँटता चलता है जिसको हम स्वीकारते चले जाते हैं। बात की बात में ही वह हमें जीवन की बड़ी-बड़ी सारगर्भित बातें सुना जाता है—न हमें इसका पता चलता है कि क्यों उसने ये बातें सुनाई, हम यही जान पाते हैं कि क्यों हमने ये सब बातें सुनीं और क्या हमारे पल्ले पड़ा—ऐसी ही हवा को साथ लेकर सच्चे निबंध का सौरभ फैलता है। किसी ने निबंध को ‘हँसी हँसी में ज्ञान वितरण’ के नाम से जो अभिहित किया है वह यथार्थ ही जान पड़ता है।

    डॉ. जानसन की दी हुई निबंध की परिभाषा तो प्रसिद्ध ही है अर्थात् निबंध मन की उस शैथिल्य भरी तरंग का नाम है जिसमें क्रम-बद्धता नहीं मिलती, जिसमें विचारों की परिपक्वता का भी अभाव दिखलाई पड़ता है। डॉ. जानसन स्वयं अपने ढंग के एक अच्छे निबंध-लेखक थे, और यह भी ध्यान में रखने की बात है कि निबंध-विषयक उनकी परिभाषा भी अत्यंत लोकप्रिय हुई किंतु फिर भी उनकी परिभाषा को हम निर्दोष नहीं मान सकते और सच तो यह है कि किसी भी परिभाषा के लिए निर्दोष बन सकना उतना सरल काम नहीं जितना आपातत: दिखलाई पड़ता है। निबंध मे क्रमबद्धता हो यह तो माना जा सकता है किंतु यह कैसे स्वीकार किया जाय कि निबंध उस महाभाग की रचना है जिसे बुद्धि का अजीर्ण हो गया हो! कहाँ तो अजीर्ण बुद्धि का वमन और कहाँ हँसी-हँसी मे ज्ञान विज्ञान का वितरण—इन दोनों परिभाषाओं मे कितना अंतर, कितना वैपरीत्य है! संभव है इस प्रकार की असंबद्ध बुद्धि की अजीर्णता को भी निबंध की सज्ञा मिल गई हो किंतु जिन्होंने मानटेन, ऐडीसन, लैंब, काउले, वेकन, कार्लाइल तथा सरदार पूर्ण सिंह एवं आचार्य शुक्ल आदि के निबंधों को पढ़ा है उनको साक्षी देकर कहा जा सकता है कि ‘बुद्धि की अजीर्णता’ का प्रयोग करने के लिए उनके निबंध नहीं हैं।

    ‘ऐसे’ शब्द की उद्भावना फास के मानटेन द्वारा हुई जो निबंध का जनक समझा जाता है। उसका कहना था कि मेरी इस प्रकार की रचना साहित्य की एक विशिष्ट नूतन पद्धति के संबंध मे प्रयास मात्र है—ऐसा निर्लिप्त प्रयास जिसमें एक पक्ष के ग्रहण और दूसरे के त्याग का आग्रह नहीं। दुनिया जैसी है वैसी ही रहे, चरम सत्य का जो बहुमुखी रूप है वह भी ज्यों का त्यों धरा रहे किंतु सच्चा निबंध लेखक अपनी आँखों से दुनिया को जिस रूप में देखता है, सत्य के अनंतमुखी देव के जितने मुख उसने देखे हैं, उनका वह उद्घाटन करता चलता है। वस्तुतः देखा जाए तो वह दुनिया का उतना दर्शन नहीं कराता जितना अपनी ही मूर्ति का दर्शन दुनिया को कराता है।

    पहले यह समझा जाता था कि लेखक को निबंध में अपना व्यक्तित्व प्र‌दर्शित नहीं करना चाहिये। यही कारण है कि निबन्धों में उत्तम पुरुष सर्वनाम का प्रयोग भी वर्जित कर दिया गया। हास्य को भी तब कोई विशेष महत्व प्राप्त था। किंतु इस प्रकार की स्थिति बहुत समय तक रही। स्वाभाविकता से अपने भावों को प्रकट कर देना ही जिसमें दर्पण के प्रतिबिंब की तरह लेखक का व्यक्तित्व झलक उठे सच्चे निबंध का लक्षण समझा गया। जिस निबंध में वर्ण्य-विषय तो हो किंतु व्यक्ति नदारद हो वह सच्चे अर्थ में निबंध ही नहीं। तथा निबंध-लेखक वर्ण्य-विषय का उतना प्रस्फुटन नहीं करता जितना वह अपने व्यक्तित्व को प्रस्फुटित करता है। कभी-कभी विषय भी रुचिकर हो सकता है किंतु निबंध में सभी दिलचस्पी इसी कारण पैदा होती है कि कहनेवाला एक व्यक्ति है। लेखक का व्यक्तित्व जितना ही आकर्षक होगा, उतना ही वह हमें अधिकाधिक प्रभावित करेगा। यदि दो लेखक एक ही ढंग से किसी विषय का वर्णन करें तो इसका मतलब तो यह हुआ कि उस विषय ने ही लेखकों पर अपना अधिकार जमा लिया है, लेखकों का उस पर कोई अधिकार नहीं। मानटेन जैसा निबंध लेखक वर्ण्य-विषय के साथ स्वच्छंद विहार करता है। उसकी पुस्तक का जो स्पर्श करता है, वह वस्तुत: मानटेन के व्यक्तित्व का ही स्पर्श करता है। इस प्रकार का निबंध-लेखक उन असंख्य छोटी-छोटी वस्तुओं में भी ऐसे-ऐसे तत्त्व ढूँढ़ निकालता है जिनकी पाठकों ने स्वप्न में भी कल्पना की होगी। उसके विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सृष्टि की कोई भी वस्तु तुच्छ नगण्य नहीं है। लेखक के व्यक्तित्व से स्पंदित होकर वह महत्त्वपूर्ण हो उठती है। आकर्षण की वस्तु वास्तव में विषय नहीं, लेखक का व्यक्तित्व ही आकर्षित करनेवाला होता है।

    किसी भी प्रकार के नियम को मानकर चलना ऐसे निबंध-लेखक की प्रकृति के प्रतिकूल है किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि इस प्रकार के लेखक की कृति छिन्न-भिन्न निरर्थक वस्तु होती है। मानटेन अपने निबंधों में विषयांतर करता-सा जान पड़ता है किंतु अंत में वह सूत्र को इस प्रकार घुमाता है कि विषयांतर नहीं रह जाता, उसमें भी एक प्रकार की कलात्मक संपूर्णता जाती है। मानटेन के ढंग के सच्चे निबंध तभी लिखे जा सकते हैं जब—

    1 लेखक का व्यक्तित्व आकर्षक हो।

    2 उसका हृदय संवेदनशील हो।

    3 सूक्ष्म निरीक्षण की उसमें असाधारण शक्ति हो।

    4 जीवन की विशद अनुभूति हो।

    5— मनुष्यों तथा समाज के रीति-रिवाजों से उसका सजीव परिचय हो।

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