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रंग की पिचकारी

rang ki pichkari

बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

अन्य

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और अधिकबदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन'

    ‘कवि वाचन सुधा’ के पीछे ‘नागरी नीरद’ ही ने होली का नंबर निकाल लोगों को उसकी विधि बतलाई और प्राय: होलियों में वाह अपना आरंभ किया हुआ कर्तव्य करता ही जाता था। क्रमश: कलकतिए समाचार पत्र भी होली मनाने लगे; नहीं तो वे स्वदेशाचारानुसार प्राय: शारदीय पूजा ही में हँस लिया करते थे। यों देखादेखी जो लोग इधर होली में हँसने लगे, तो प्राय: निज योग्यतानुसार अपने पाठकों के मनोरंजन के हेतु भी होते रहे और अवाश्य ही कोई-कोई उनमें कृतकार्य भी हो जाते थे। यद्यपि वाह एक ही रंग में शराबोर भी दिखलाते, तथापि उनमें कुछ सुहावाने रंग की पिचकारी के छीटों से सुशोभित लखाते ही थे। किंतु उन्हें देख कुछ लोगों ने बेरंग अथवा बेढंग रीति से भी रंग छिड़कना आरंभ किया,—ठीक उसी भाँति, जैसे कि आज कल योग अपने केशर, बक्कम, मजीठ वा किंशुक और गुलाल के लाल और पीले रंग के स्थान पर विविध रंग की विलायती नीली हरी वा बेगनी रंग की बुकनी से बने विविध विरूद्ध रंगों को फेंक केवाल लोगों के वास्त्र ही बिगाड़ देते, वारंच देखने वालों की दृष्टि को विरूद्ध दृश्य दिखला कर बेंत खाने के योग्य कार्य करते, यों हीं कोई किसी के मुँह में बलात् कालिख लगा गले में लताड़ियों की माला पहना जूतियाँ खा जाते हैं। तद्रूप कई लोग चाहे किसी को अच्छा लगे वा नहीं, कुछ बेढंगी बातें बक देने ही में अपने को कृतकार्य मानते हैं! वास्तवा में यह ठीक नहीं, इसी से ऐसों की दशा पर अगले कवियों ने कहा है कि—“होली खेलही जाने, वाह तो निपट अनारी!” सो यदि कोई अपने पत्र पाठकों को सुहाती हँसी ठिठोली से प्रसन्न कर सके, तो उसका होली मनाना सर्वथा उचित है, किंतु व्यर्थ किसी का दिल दुखाने वा घृणा उत्पन्न कराने से कोई लाभ नहीं। युक्त रीति पर गाली देने में भी रस आता और अयुक्त रीति पर स्तुति भी बुरी लगती है। इसी से इसमें इसका ध्यान रखना अत्यंतावाश्यक है कि जिसमें किसी को हँसी के स्थान पर रुलाई आए। यों ही जैसे लोग कालिख आदि के व्यवाहार से किसी को कष्ट पहुँचाने ही के अर्थ होली के आने की प्रतीक्षा करते, वैसे ही कुछ लोग इसी व्याज से कुछ मर्मस्पर्शी बातें कहकर किसी से दूसरी कसर निकालने ही के लिए व्यर्थ उटपटांग बातें बक चलते हैं कि जो सर्वथा अयोग्य हैं। कुछ लोग अब एप्रिल फूल के भी फूल बनते हुए वास्तवा में अपने को फूल प्रमाणित करते हैं। क्योंकि होली-फूल जब एप्रिल फूल का परदादा हुई है तो क्यों वाह हिंदू होकर व्यर्थ क्रिस्तानों के मेले में मिलने का प्रयत्न करते हैं?

    इस वार्ष भी कुछ लोगों ने होली मनाई और किसी से कुछ ठिकाने से बोली ठोली बोलते भी बन आई। जहाँ कुछ कचाई है उसके अर्थ आगामि में सुघड़ई लखाई जाने पर ध्यान रहे, व्यर्थ की ढिठाई से हँसाई कराना ठीक नहीं। क्योंकि इस बार भी देखा कि कई लोगों ने कैयों पर अयोग्य आक्रमण किए जो अनुचित थे। समान श्रेणी में भी संभ्रांत के संभ्रम का विचार अवाश्य है। गुलाल, बाप, भई, बेटे और साले को भी लगाया जाता ही है, किंतु सब को एक समान नहीं। वारंच उसमें भी भेद रहता है। बस, इसमें भी उसका ध्यान रखना चाहिए; नहीं तो केवाल जलकिटी के आधिक्य से आनंद के स्थान पर केवाल रसाभास और वैमनस्य ही की वृद्धि सदा सुलभ है। यद्यपि इस बार कोई व्यक्ति विशेष इसका लक्ष्य नहीं है, वारंच केवाल सामान्य भावा का रंग छिड़कावा है; तो भी आशा है कि इस पिचकारी के छीटों से लोग चैतन्य हो जाएँगे।

    लाल गुलाल तो मानों होली वा फागुन का प्राण है क्योंकि इसकी शोभा का हेतु है। अवाश्य ही गड्डामियरी पौशाक पहनने वाले बहुतेरे अँग्रेज़ीबाज़ साँवाले लोग इसका लगवाना मानों अपने मुँह में कालिख लगवाने से कम नहीं जानते, किंतु उन्हें आर्य संतान ही नहीं मानते, इसी से उन्हें केवाल संसार का कूड़ा करकट समझ होलिकानल में झोंक देना मात्र ही इति कर्तव्य समझते। नहीं तो जो इस वार्षांत में हर्षोच्छलित मन बनाने वाले, स्वाभाविक मानवा मात्र को आनंद विह्वल वा प्रेमोन्मत्त के राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में अपने इष्ट मित्रों के गालों पर लाल गुलाल मले अथवा उसे वारण करे तो किसी कवि के कथानुसार उसे इसी पद्य का संबोधन उचित है कि—“नाहक तू जन्म लीन्यो मूरख अवानि महिं, बूड़ि क्यों गयों उल्लू चुल्लू भर पानी में।” सुतराम् हम इस होली के हौस में भर अपने सुहृद सहयागियों और प्रिय पाठकगण के गाल लाल किए बिना नहीं रह सकते और हँसकर उन्हें प्रेमालिंगन किए नहीं मान सकते। अवाश्य ही वे बहुत दूर पड़े हैं, किंतु मन उनसे वाहीं मिलकर इन कार्यों के करने में समर्थ है, अत: वाह अपना कार्य का अपराध की क्षमा चाहता है।

    हमारा होली का त्योहार हँसी-ठठोली, बोली-ठोली और गाली-गलौज के अर्थ भी विख्यात है। वास्तवा में हर्ष का चिह्न भी यही है, आनंद मनाने का नियम भी यही है और सच पूछिए तो इस होलिकोत्सवा का वास्तविक सत्कार भी यही है। हाँ, अवासर और पात्र तथा उसके प्रयोग के प्रकार का विचार अवाश्य है; क्योंकि इसके विरुद्धाचरण से फल विपरीत होता है। सो सहृदय पाठकों की कृपा से होली बीत जाने पर भी उसका अवासर उपस्थित है, अब पात्र का विवेक मात्र और सापेक्ष्य है। पात्र हमारे प्रिय पाठकों से बढ़कर कोई मिलता कब है। मिले भी तो उसकी इतनी प्रतिष्ठा कहाँ कि वाह इस सत्कार का भागी हो सके। इसी से अब हम उन पात्रों के तीन भेद कर अर्थात् पात्र, सुपात्र और कुपात्र तीनों के अर्थ अलग-अलग यथा योग्य तीनों सत्कार का प्रयोग करके होली मनाने का प्रयत्न करेंगे।

    लोग तीन का नाम सुन चौकेंगे कि “भाई! यह तीन कैसा? नहीं नहीं! डरने की कुछ बात नहीं है। हम अपने ग्राहकों के तीन भेद कर उनके अर्थ होली के तीनों सत्कार का प्रयोग करेंगे। जैसे कि एक सामान्य सुपात्र की जिन्हें कुछ परलोक में यमदंड और इस लोक में उपहास का भय है, इस पत्रिका पर यथार्थ अनुराग के कारण जिन्होंने कादंबिनी का यदि सब नहीं तो कुछ मूल्य दिया है; उनको हम सामान्य बोली-ठोली ही से सत्कार करते हैं और वाह केवाल एकमात्र कि—कृपाकर निज कृपा विस्तारपूर्वक अब शीघ्र मूल्य दे दीजिए और हमारा अनंत धन्यवाद ग्रहण कीजिए। दूसरे श्रेणी के पात्र हमारे वे बेख़बर पत्र पाठक कि जो पत्र तो जब मिला खोलकर अपने मनोरंजन में प्रवृत्त हुए, किंतु दाम देने की कोई आवाश्यकता ही नहीं समझते। कदाचित् उनमें कुछ लोगों के ध्यान में—यदि कभी कुछ मूल्य देना पड़ेगा—समाता भी होगी, तो तबी कि जब उन पर कठिन चाँप चढ़े, क्योंकि सामान्य सूचना वा कार्डों का पचा जाना तो उनके अर्थ सदा सुलभ है। अत: उनकी सेवा में द्वितीय श्रेणी का सत्कार समपर्ण कर हम यह प्रार्थना करते हैं कि ईश्वर के निहोरे कुछ धर्म का भय भी विचार अब मूल्य भेजने की दया दिखाएँ और हमें अनुगृहीत बनाएँ तथा अधिक सताएँ। हम पात्रों से अधिक खोद विनोद कर केवाल इसी कटु वाचनों द्वारा उन से छेड़खानी कर कृतकृत्य होने की आशा रखते हैं। आशा है कि तृतीय श्रेणी के प्रवेश से डरकर उदारता का परिचय देंगे। रहे वे जो ईश्वर ही के घर से तृतीय सत्कार गाली गलौच के पात्र वा कुपात्र हैं, उनकी तो कथा ही अकथ है। वे सदैवा लज्जा का पर उलट बेसुध औंधे पड़े रहने वाले, पत्रों के निवाले निगलते ही चले जाते नहीं अघाते और डकारते तक नहीं, सदैवा पराए पत्र पत्रिका को निज पिता की संपत्ति समझते दाम के नाम की भी चिंता चित्त में नहीं लाते। कितने ही तक़ाज़ों के पत्र और कार्ड नित्य जिनके रद्दीदान में पड़े सड़ा करते और वे कहीं से कुछ भी कान पूँछ नहीं हिलाते! बहुतेरे उनमें ऐसे भी नर पिशाच देखने में आते कि जो पाँच वार्ष पर्यंत निरंतर पत्रिका पढ़ वेल्यूपेएबिल पार्सल के मूल्य देने से मुकर कर अधिक हानि के घलुए दिलाने के भी कारण होते। तब सिवाए सौ गाली को छोड़ वे अन्य और किस सत्कार के पात्र हैं और उन्हें छोड़ तीसरे का स्वत्व किसे पहुँच सकता है? सुतराम् उनके इधर और उधर सात पुश्त को लाख गाली है। आशा है कि अब अपने यथोचित सत्कार को पा वे प्रसन्न हो किंचित कांख-कूँख कर अपनी संकुचित कृपा को विस्तार दे आगामि में इसकी आवाश्यकता लाएँ।

    इन सब से विलक्षण कुछ ऐसे भी व्यक्ति विशेष हैं कि जो इन अंतिम श्रेणी वालों के भी दादागुरु हैं। जिनसे प्रथम तो हम तक़ाज़ा ही नहीं कर सकते और यदि करते तो केवाल खीस बा कर केवाल हैं—हें की हिनहिनाहट सुनाते वा कहते कि हम तो इष्ट हैं, मित्र हैं, हमसे मूल्य! वे यह भी नहीं जानते कि अंतत: काग़ज़ रोशनाई और डाक का महसूल कुछ भी तो देना चाहिए, वाह खैराती खाते में भी जाते लजाते। पत्र प्रेरकों में भी सूरत नहीं दिखाते फिर ऐसों को कहिए कि क्या कहें? और उन्हें कौन सी गाली दें कि जो निर्लज्ज शिरोमणि विधाता के घर के बने हैं! अस्तु, ऐसे कंजूस मक्खीचूस ग्राहक भी क्या कुछ शर्माने की कृपा दिखाएँगे!

    हमारे तरफ़ से जो त्रुटियाँ हुआ करतीं उसका हम स्वयं शोधन कर, पूरा मूल्य नहीं चाहते, वारंच हिसाब से घटाते हैं। यदि वाह चाहे कुछ जुर्माना भी लें किंतु क्या वे कुछ देकर ही पत्र-पठन-न्याय संगत मानते हैं? वे पत्रिका लौटा ही देकर आगामि से क्षति पहुँचाने की भलमनसाहत दिखा सकते थे। जो हो, आशा है कि हमारे सज्जन पत्र-पठन-समूह इस होली की गाली गलौज से अवाश्य शिक्षा ग्रहण कर अपनी वास्तविक कृपा दिखाएँगे। होली की इस ठठोली को निरी ठठोली ही जान वैद्य की गोली सी पचा जाएँगे। यदि वे ऐसा करेंगे, तो सचमुच गाली खाएँगे, अन्यथा इस बोली-ठोली पर प्रसन्न हो बुरा मान वे अवाश्य ही प्रसन्नता का प्रमाण दें हमें अनुगृहीत बनाएँगे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रेमघन सर्वस्व द्वितीय भाग (पृष्ठ 251)
    • संपादक : प्रभाकरेश्वर प्रसाद उपाध्याय, दिनेश नारायण उपाध्याय
    • रचनाकार : बदरीनारायण उपाध्याय
    • प्रकाशन : हिंदी साहित्य सम्मलेन
    • संस्करण : 2007

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